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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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इन चार प्राणों से परन्तु प्राण ये पुद्गलमयी ।।१४७|| स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रपञ्चकमिन्द्रियप्राणा:, कायवाङ्मनस्त्रयं बलप्राणा:, भवधारणनिमित्तमायुःप्राणः । उदञ्चनन्यञ्चनात्मको मरुदानपानप्राणः ।।१४६।।
प्राणसामान्येन जीवति जीविष्यति जीवितवांश्च पूर्वमिति जीवः।
एवमनादिसंतानप्रवर्तमानतया त्रिसमयावस्थत्वात्प्राणसामान्यं जीवस्य जीवत्वहेतुरस्त्येव; तथापि तन्न जीवस्य स्वभावत्वमवाप्नोति पुद्गलद्रव्यनिर्वृत्तत्वात् ।।१४७।।
इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास - ये चार जीवों के प्राण हैं। यद्यपि उक्त चार प्राणों से जो जीता है, जियेगा और भतकाल में जीता था, वह जीव है; तथापि ये प्राण तो पुद्गलद्रव्यों से निष्पन्न हैं।
उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँच इन्द्रिय प्राण हैं; काय, वचन और मन - ये तीन बल प्राण हैं; भवधारण का निमित्त आयु प्राण है और नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है - ऐसी वायु श्वासोच्छ्वास प्राण है।
जो प्राणसामान्य से जीता है, जियेगा और पहले जीता था; वह जीव है।
यद्यपि अनादि सन्तानरूप प्रवर्तमान होने से संसारदशा में त्रिकाल स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है; तथापिवह प्राणसामान्य जीव का स्वभाव नहीं है। क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से निष्पन्न है।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि उनकी टीकाओं में उक्त दोनों गाथाओं के बीच में एक गाथा और आती है, जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। वह गाथा इसप्रकार है -
पंच वि इंदियपाणामणवचिकाया य तिण्णि बलप्राणा। आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होंति दस प्राणा।।१२।।
( हरिगीत ) पाँच इन्द्रिय प्राण मन-वच-काय त्रय बल प्राण हैं।
आयु श्वासोच्छ्वास जिनवर कहे ये दश प्राण हैं।।१२।। पाँच इन्द्रिय प्राण; मन, वचन और काय - ये तीन बल प्राण; श्वासोच्छ्वास और आयुरूप प्राण से प्राण दश होते हैं।
उक्त गाथा की टीका में भी गाथा के शब्दों को दुहरा दिया है; पर अन्त में यह लिख