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प्रवचनसार
जिसका लक्षण है - ऐसे जीवों के वस्तु का सहज स्वभाव होने से सर्वदा निश्चय जीवत्व पुद्गलसंश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतु विभक्तव्योऽस्ति ।।१४५।।
अथ के प्राणा इत्यावेदयति । अथ प्रणानां निरुक्त्या जीवत्वहेतुत्वं पौद्गलिकत्वं च सूत्रयति -
इंदियपाणो य तधा बलपाणो तह य आउपाणो य। आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होंति पाणा ते ॥१४६।। पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता ।।१४७।।
इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायु:प्राणश्च । आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणास्ते ।।१४६।। प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीविष्यति यो हि जीवित: पूर्वम् ।
स जीव: प्राणाः पुनः पुद्गलद्रव्यैर्निवृत्ताः ।।१४७।। होने पर भी; संसारावस्था में अनादि काल से प्रकटरूप से वर्तमान पुद्गल के संश्लेष द्वारा स्वयं दूषित होने से चार प्राणों का संयोग होने से व्यवहारजीवत्व है और वह विभक्त करने योग्य है।"
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि इस लोक में सभी द्रव्य सप्रदेशी हैं और ज्ञेय हैं; किन्तु जीवद्रव्य ज्ञेय के साथ ज्ञान भी हैं; जानने में आने के साथ-साथ जानते भी हैं।
यद्यपि सभी जीव निश्चय से ज्ञानस्वभावी ही हैं; तथापि संसार दशा में व्यवहार से अनादि से शरीरादि अर्थात् कम से कम चार प्राणों के संयोग में भी हैं। अत: शरीरादि से भगवान आत्मा जुदा है - यह जानना अत्यन्त आवश्यक है।।१४५||
विगत गाथा में कहा गया है कि व्यवहारजीवत्व का हेतु चार प्राण हैं और निश्चयजीव उक्त चार प्राणोंरूप शरीर से भिन्न है। अब प्राणों के नाम बताकर व्युत्पत्ति से प्राणों को जीवत्व का हेतुपना और उनका पौद्गलिकपना बताते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) इन्द्रिय बल अर आयु श्वासोच्छ्वास ये ही जीव के। हैं प्राण इनसे लोक में सब जीव जीवे भव भ्रमें ||१४६|| जीव जीवे जियेगा एवं अभी तक जिया है।