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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन: द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार
अथ द्रव्यविशेषो गुणविशेषादिति प्रज्ञापयति । अथ मूर्तामूर्तगुणानां लक्षणसंबंधमाख्याति
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लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । तेऽतभावविसिट्टा मुत्तामुत्ता गुणा णेया । । १३० ।। मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा । व्वाणमुत्तणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ।। १३१ ।। लिङ्गैयैर्द्रव्यं जीवोऽजीवश्च भवति विज्ञातम् । तेऽतद्भावविशिष्टा मूर्तामूर्ता गुणा ज्ञेयाः ।। १३० ।। मूर्ता इन्द्रियग्राह्याः पुद्गलद्रव्यात्मका अनेकविधाः । द्रव्याणाममूर्तानां गुणा अमूर्ता ज्ञातव्याः ।। १३१ ।। द्रव्यमाश्रित्य परानाश्रयत्वेन वर्तमानैर्लिङ्गयते गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिङ्गानि गुणाः । ते च यद्द्रव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति, ये गुणा भवन्ति ते न द्रव्यं भवतीति द्रव्यादतद्भावेन विशिष्टाः सन्तो लिङ्गलिङ्गिप्रसिद्धौ तल्लिङ्गत्वमुपढौकन्ते ।
विगत गाथाओं में द्रव्यों को जीव-अजीव, लोक- अलोक और क्रियावान-भाववान के रूप में प्रस्तुत किया गया है और अब आगामी दो गाथाओं में उन्हें गुणों की विशेषता से द्रव्यों में विशेषता होती है - यह बताते हुए छह द्रव्यों को मूर्त और अमूर्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं । गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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( हरिगीत )
जिन चिह्नों से द्रव ज्ञात हों रे जीव और अजीव में।
वे मूर्त और अमूर्त गुण हैं अतद्भावी द्रव्य से || १३० || इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूर्त गुण पुद्गलमयी ।
अमूर्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्त्तिक जानना ।। १३१ ॥
जिन लिंगों से द्रव्य जीव और अजीव के रूप में ज्ञात होते हैं; वे अतद्भाव विशिष्ट मूर्तअमूर्त गुण जानने चाहिए ।
जो इन्द्रियों से ग्रहण किये जाते हैं, ऐसे मूर्तगुण पुद्गलद्रव्यात्मक हैं और वे अनेक प्रकार के हैं और अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त जानना चाहिए ।
इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"पर के आश्रय के बिना स्वद्रव्य का आश्रय लेकर प्रवर्तमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य