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प्रवचनसार
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यहाँ लोक को जीव-पुद्गलात्मक ही क्यों लिखा है; वह तो षड्द्रव्यात्मक है ।
इस प्रश्न का उत्तर आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में यह कहते हुए देते हैं कि लोक तो षड्द्रव्यात्मक ही है, यहाँ उपलक्षण से जीव- पुद्गलात्मक कह दिया है। इस वर्गीकरण को आचार्य जयसेन सक्रिय और निष्क्रिय द्रव्यों के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। साथ में यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि जीव और पुद्गलों की अर्थ और व्यंजन - दोनों पर्यायें होती हैं; शेष द्रव्यों की मात्र अर्थपर्यायें ही होती हैं ।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि अर्थपर्यायें प्रतिसमय परिणमनरूप होती हैं और जब जीव इस शरीर को त्याग कर दूसरे भव में शरीर को ग्रहण करता है तो विभावव्यजंनपर्यायें होती हैं । इसीप्रकार पुद्गलों में भी विभावव्यंजनपर्यायें होती हैं । इसीकारण जीव व पुद्गल को सक्रिय द्रव्य कहा जाता है ।
मुक्त जीवों के स्वभावव्यजंनपर्याय होती है; क्योंकि उनके भेद ही होता है, संघात नहीं । उक्त गाथा में यह बताया गया है कि जीव और पुद्गल द्रव्यों को छोड़कर शेष चारों द्रव्यों में क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गमनरूप क्रिया नहीं होती ।
जिसमें कालद्रव्य निमित्त होता है, ऐसी परिणमनरूप क्रिया तो सभी छह द्रव्यों में होती है; पर जिसमें धर्मद्रव्य निमित्त होता है, ऐसी क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप गमन क्रिया और जिसमें अधर्मद्रव्य निमित्त होता है - ऐसी गमनपूर्वक ठहरनेरूप क्रिया जीव और पुद्गलों में ही होती है । इसीकारण जीव और पुद्गलों को सक्रिय द्रव्य कहते हैं ।
उक्त क्रिया के अभाव में शेष द्रव्यों को निष्क्रिय द्रव्य कहा जाता है।
परिणमनरूप क्रिया तो सभी द्रव्यों में होती ही है, पर उसके कारण किसी भी द्रव्य को सक्रिय या निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता।
सभी द्रव्यों में एक भाववती शक्ति है, जिसके कारण परिणमनरूप क्रिया होती है तथा जीव और पुद्गलों में भाववती शक्ति के साथ-साथ क्रियावती शक्ति भी है, जिसके कारण परिस्पन्द अर्थात् क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गमनरूप, हलन चलनरूप क्रिया होती है।
कालद्रव्य, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य तो मात्र निमित्त होते हैं; परिणमनरूप क्रिया और परिस्पन्दरूप क्रिया तो भाववती और क्रियावती शक्ति के कारण होती है।
ज्ञेयतत्त्व का ऐसा स्वरूप समझने से चित्त में स्वाधीनता का भाव जागृत होता है ।। १२९ ।।