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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन: द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार
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उत्पादस्थितिभङ्गाः पुद्गलजीवात्मकस्य लोकस्य ।
परिणामाज्जायन्ते संघाद्वा भेदात् ।।१२९।।
क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेषः । तत्र भाववन्तौ क्रियावन्तौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चयः ।
तत्र परिणाममात्रलक्षणो भावः, परिस्पन्दनलक्षणा क्रिया । तत्र सर्वाण्यपि द्रव्याणि परिणामास्वभावात्वात् परिणामेनोपात्तान्वयव्यतिरेकाण्यवतिष्ठमानोत्पद्यमानभज्यमानानि भाववन्ति भवन्ति ।
पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावात्वात्परिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहता: पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन नूतनकर्मनोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तैः सह संघातेन, संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । । १२९ ।।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं" द्रव्यों में इस अपेक्षा भी भेद पड़ता है कि कुछ द्रव्य भाव और क्रियावाले हैं; पर कुछ द्रव्य मात्र भाववाले ही हैं । पुद्गल और जीव भाववाले भी हैं और क्रियावाले भी हैं; क्योंकि वे परिणाम द्वारा और भेद व संघात द्वारा उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। शेष द्रव्य मात्र भाववाले ही हैं; क्योंकि वे परिणाम के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं; टिकते हैं और नष्ट होते हैं - ऐसा निश्चय है ।
इनमें भाव का लक्षण परिणाम है और क्रिया का लक्षण परिस्पन्द (कम्पन ) है | भाववाले तो सभी द्रव्य हैं; क्योंकि परिणामस्वभाववाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय और व्यतिरेकों को प्राप्त होते हुए वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं ।
पुद्गल भाववाले होने के साथ-साथ क्रियावाले भी हैं; क्योंकि परिस्पंदस्वभाववाले होने से परिस्पन्द के द्वारा पृथक् पुद्गल एकत्रित हो जाते हैं और मिले हुए पुद्गल फिर पृथक् हो जाते हैं; इस अपेक्षा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट हो जाते हैं । जीव भी भाववाले होने के साथ-साथ क्रियावाले भी होते हैं; क्योंकि परिस्पन्दस्वभाववाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म - नोकर्मरूप पुद्गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्रित होने से और कर्म - नोकर्मरूप पुद्गलों के साथ एकत्रित हुए जीव बाद में पृथक् होने की अपेक्षा से वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । "