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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुद्धोपयोगाधिकार
शुद्धोपयोगियों की बात है।
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अथ शुद्धोपयोगलाभानन्तरभाविशुद्धात्मस्वभावलाभमभिनन्दति - उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ । भूदो सयमेवादा जादि परं
भूदाणं ।। १५ ।।
उपयोगविशुद्धो यो विगतावरणान्तरायमोहरजाः । भूतः स्वयमेवात्मा याति पारं ज्ञेयभूतानाम् ।। १५ ।। यो हि नाम चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्धो भूत्वा वर्तते स खलु प्रतिपदमुद्भिद्यमानविशिष्टविशुद्धिशक्तिरुद्ग्रन्थितासंसारबद्धदृढतरमोहग्रंथितयात्यंतनिर्विकार
यद्यपि आचार्य जयसेन १३ वीं गाथा से शुद्धोपयोगाधिकार का आरंभ स्वीकार करते हैं, क्योंकि १३ वीं गाथा की उत्थानिका में शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ होने की बात वे कह चुके हैं; तथापि १४ वीं गाथा तक पीठिका मानते हैं। वे लिखते हैं कि इसप्रकार यहाँ चौदह गाथाओं और पाँच स्थलों में विभक्त पीठिका नामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।।१४।।
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चौदहवीं गाथा में सूत्रार्थवेदी, संयमी, तपस्वी, शुद्धोपयोगी श्रमणों की चर्चा की है और अब इस पन्द्रहवीं गाथा में शुद्धोपयोग के फल में तत्काल प्राप्त होनेवाले शुद्धात्मस्वभाव के लाभ का अभिनन्दन करते हैं, केवलज्ञान प्राप्त होने की बात करते हैं ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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( हरिगीत )
शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज ।
स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते || १५ ||
जो विशुद्ध उपयोगवाला शुद्धोपयोगी है; वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय और मोहरूप रज से स्वयमेव रहित होता हुआ समस्त ज्ञेयपदार्थों के पार को प्राप्त करता है अर्थात् केवलज्ञानी हो जाता है, सर्वज्ञ हो जाता है ।
इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “चैतन्यपरिणामरूप उपयोग के द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तनेवाला; पद-पद पर