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प्रवचनसार
विशिष्ट विशुद्धशक्ति प्रगट होते जाने से अनादि संसार से बद्ध दृढ़तर मोहग्रन्थि छूट जाने से अत्यन्त निर्विकार चैतन्यवाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के नष्ट हो चैतन्यो निरस्तसमस्तज्ञानदर्शनावरणान्तरायतया निःप्रतिघविजृम्भितात्मशक्तिश्च स्वयमेव भूतो ज्ञेयत्वमापन्नानामन्तमवाप्नोति । __ इह किलात्मा ज्ञानस्वभावो, ज्ञानं तुज्ञेयमात्रं; तत: समस्तज्ञेयान्तर्वर्तिज्ञानस्वभावमात्मानमात्मा शुद्धोपयोगप्रसादादेवासादयति ।।१५।। ___ अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्य कारकान्तरनिरपेक्षतयाऽत्यन्तमात्मायतत्त्वं द्योतयति -
तह सोलद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिंदो।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो।।१६।। जाने से निर्विघ्न विकसित आत्मशक्तिवान होता हुआ भगवान आत्मा ज्ञेयों के अन्त को पा लेता है, सभी ज्ञेयों को जान लेता है। __ यहाँ यह कहा है कि आत्मा ज्ञानस्वभावी है और ज्ञान ज्ञेयमात्र (ज्ञेय प्रमाण) है; इसलिए समस्त ज्ञेयान्तरवर्ती ज्ञानस्वभावी आत्मा को यह आत्माशुद्धोपयोग के प्रसाद से प्राप्त करता है; जानता है, अनुभवता है, आत्मतल्लीन होता है।"
उक्त कथन का मूल तात्पर्य यह है कि जब इस आत्मा का स्वभाव जानना ही है और चार घातिया कर्मों के अभाव से समस्त प्रतिबंध समाप्त हो गये हैं तो यह भगवान आत्मा समस्त ज्ञेयों को क्यों नहीं जानेगा ? समस्त ज्ञेयों में अपना भगवान आत्मा भी है; अत: उसे भी क्यों नहीं जानेगा?
इसप्रकार यह भगवान आत्मा स्व और पर सभी ज्ञेयों को जान लेता है, शुद्धोपयोग के प्रताप से केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, सर्वज्ञ हो जाता है।
इसप्रकार तेरहवीं गाथा में यह बताया कि शुद्धोपयोग से अतीन्द्रिय अनन्त सुख प्राप्त होता है और यहाँ इस पन्द्रहवीं गाथा में यह बताया कि उसी शुद्धोपयोग से अतीन्द्रिय अनंतज्ञान प्रगट होता है।
अनंत अतीन्द्रियज्ञान और अनंत अतीन्द्रियसुख - दोनों एकमात्र शुद्धोपयोग के फल हैं; इसलिए उन्हें प्राप्त करने की भावनावाले भव्यजीवों को एकमात्र निज भगवान आत्मा की आराधना करना ही उपादेय है; अन्य बाह्य विकल्पों में उलझने से कोई लाभ नहीं है|१५||