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प्रवचनसार
शुद्धोपयोगी श्रमण के समभाव भवसुख-दुक्ख में ।।१४।। सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्रः; सकलषड्जीवनिकायनिशुम्भनविकल्पात्पंचेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्च व्यावात्मन: शुद्ध स्वरूपे संयमनात्, स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गचैतन्यप्रतपनाच्च संयमतपसंयुतः; सकलमोहनीयविपाकविवेकभावनासौष्ठवस्फुटीकृतनिर्विकारात्मस्वरूपत्वाद्विगतरागः; परमकलावलोकनाननुभूयमानसातासातवेदनीयविपाकनिर्वर्तितसुखदुःखजनितपरिणामवैषम्यत्वात्समसुखदुःख: श्रमणः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ।।१४।।
जिन्होंने जीवादि पदार्थों और उनके प्रतिपादक सूत्रों को भलीभांति जान लिया है, जो संयम और तप से संयुक्त हैं, जो वीतरागी हैं, जिन्हें सांसारिक सुख-दुःख समान हैं - ऐसे श्रमणों को शुद्धोपयोगी कहा गया है।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“स्व-पर के प्रतिपादक जिनसूत्रों के बल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में और आचरण में समर्थ होने से जोसूत्रार्थ के जानकार हैं; छह काय के सभीजीवों की हिंसा के विकल्प से और पाँचोंइन्द्रियों की अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्त करके आत्मा के शुद्धस्वरूप में संस्थापित करने से संयमयुक्त और स्वरूप में विश्रान्त, विकल्प तरंगों से रहित तथा चैतन्य में प्रतपन होने से तपयुक्त हैं - इसप्रकार संयम और तप से युक्त हैं; सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के विपाक से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषभावों से भिन्नता की उत्कृष्ट भावना से निर्विकारी आत्मस्वरूपको प्रगट करने से जो विगतराग हैं अर्थात्वीतराग हैं; परमकला के अवलोकन के कारण साता-असातावेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखजनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से जो सांसारिकसुख और दुःखों के प्रति समानभाव रखनेवाले हैं, समसुख-दुःख हैं - ऐसे श्रमणों को शुद्धोपयोगी कहते हैं।"
तेरहवीं गाथा में शुद्धोपयोग के प्रसाद से प्राप्त होनेवाले अनंत सुख का वर्णन था और यहाँ चौदहवीं गाथा में शुद्धोपयोगी मुनिराजों के स्वरूप का वर्णन है। ___ इसीप्रकार तेरहवीं गाथा में अरहंत और सिद्धों के शुद्धोपयोग का वर्णन था और यहाँ चौदहवीं गाथा में अरहंत अवस्था प्राप्त करने के पूर्व जो शुद्धोपयोगदशा होती है, उसका निरूपण है; क्योंकि यहाँ शुद्धात्मा आदि तत्त्वार्थों के प्रतिपादक सूत्रों के जानकार श्रुतज्ञानी शुद्धोपयोगियों की बात है और वहाँ १३ वीं गाथा में अव्याबाध अनंतसुख के धारक केवलज्ञानी