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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुद्धोपयोगाधिकार यातीतमनौपम्यमनन्तमव्युच्छिन्नं च शुद्धोपयोगनिष्पन्नानां सुखमतस्तत्सर्वथा प्रार्थनीयम् ।।१३॥ अथ शुद्धोपयोगपरिणतात्मस्वरूपं निरूपयति -
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।।१४।।
सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतप:संयुतो विगतरागः।
श्रमणः समसुखदुःखो भणित: शुद्धोपयोग इति ।।१४।। बिना अन्तर के अर्थात् निरन्तर प्रवर्तमान होने से अविच्छिन्न होता है; इसलिए यह सुख सर्वथा प्रार्थनीय है, परम उपादेय है।"
उक्त कथन का सार यह है कि शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाला अतीन्द्रिय आनन्द ही वास्तविक सुख है। पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा स्पर्शादि विषयों से प्राप्त होनेवाला सुख तो मात्र नाम का सुख है। वस्तुतः वह सुख सुख नहीं, दु:ख ही है; क्योंकि वह पराधीन है, आकुलतारूप है, समय पाकर नष्ट हो जानेवाला है; अत: हेय है, छोड़ने योग्य है और शुद्धोपयोग के फल में प्राप्त होनेवाला परमार्थ सुख अतीन्द्रिय है, विषयातीत है, स्वाधीन है, कभी भी नष्ट नहीं होता और निरन्तर रहता है तथा अनाकुल है; अत: उपादेय है, ग्रहण करनेयोग्य है।
एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि शुद्धोपयोग तो अरहंत अवस्था के पहले भी होता है; तथापि यहाँ शुद्धोपयोगियों से तात्पर्य शुद्धोपयोग की पूर्णता को प्राप्त अरहंत और सिद्धों से ही है।
यद्यपि गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका में ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है; तथापि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस बात का स्पष्ट उल्लेख करते हैं तथा यहाँ दिये गये शुद्धोपयोग के फल में प्राप्त होनेवाले सुख के विशेषणों से भी यही सिद्ध होता है कि यहाँ शुद्धोपयोगियों से आशय अरहंत और सिद्धों से ही है।।१३।।।
शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ करते हुए विगत गाथा में कहा गया है कि शुद्धोपयोगियों को प्राप्त सुख ही सच्चा सुख है और अब इस आगामी गाथा में यह बता रहे हैं कि जिनके ऐसा परमानन्द है, अनंत आनंद है; वे शुद्धोपयोगी कौन हैं और वे कैसे होते हैं ?
इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि अब शुद्धोपयोग परिणत आत्मा के स्वरूप का निरूपण करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सूत्रार्थ विद्।