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शुद्धोपयोगाधिकार ( गाथा १३ से गाथा २० तक )
एवमयमपास्तसमस्तशुभाशुभोपयोगवृत्तिः शुद्धोपयोगवृत्तिमात्मसात्कुर्वाणः शुद्धोपयोगाधिकारमारभते । तत्र शुद्धोपयोगफलमात्मनः प्रोत्साहनार्थमभिष्टौति - अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं ।
अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ।। १३ ।। अतिशयमात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तम् । अव्युच्छिन्नं च सुखं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ।। १३ ।। आसंसारापूर्वपरमाद्भुताह्लादरूपत्वादात्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षत्वाद
त्यन्तविलक्षणत्वात्समस्तायतिनिरपायित्वान्नैरन्तर्यप्रवर्तमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विष
मंगलाचरण ( दोहा )
ज्ञानानन्द अनंत दृग वीरज अपरंपार ।
संपादक ज्ञायक सुभग शुद्धोपयोग अधिकार ||
अब इस समस्त शुभोपयोगरूप और अशुभोपयोगरूप वृत्ति को निरस्त कर, तिरस्कृत कर शुद्धोपयोगरूप वृत्ति को आत्मसात करते हुए शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ करते हैं ।
इस अधिकार में सबसे पहले शुद्धोपयोग को प्रोत्साहन देने के लिए उससे प्राप्त होनेवाले सुख का स्वरूप बताते हैं । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत )
शुद्धोपयोगी जीव के है अनूपम आत्मोत्थसुख ।
नंत अतिशयवंत विषयातीत अर अविछिन्न है ||१३||
आत्मा के आश्रय से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले शुद्धोपयोग से सम्पन्न आत्माओं का सुख अतिशय, अनुपम, अनंत, अविच्छन्न और विषयातीत है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाला सुख अनादि संसार से कभी भी अनुभव में नहीं आने से अपूर्व एवं परम अद्भुत आल्हादरूप होने से सातिशय है; अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होने से आत्मोत्पन्न है; पराश्रय से निरपेक्ष होने से अर्थात् स्पर्शादि विषयों से निरपेक्ष होने से विषयातीत है; अत्यन्त विलक्षण होने से अर्थात् लौकिक सुखों से भिन्न होने से, भिन्न जाति का होने से अनुपम है; अनन्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से अनंत और