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प्रवचनसार
दुर्नयसप्तभंगी है।
वस्तुस्वरूप समझने और समझाने के लिए सप्तभंगीन्याय जैनदर्शन का अद्भुत अनुसंधान है, अनुपम निधि है। जैनदर्शन के मर्म को समझने के लिए इस सप्तभंगीन्याय को समझना न केवल अत्यन्त आवश्यक है, अपितु अनिवार्य है।
सप्तभंगी का स्वरूप गहराई से समझने के लिए लेखक की अन्य कृति परमभावप्रकाशक नयचक्र के सप्तभंगी नामक छठवें अध्याय का अध्ययन बारीकी से करना चाहिए। यहाँ उसकी चर्चा विस्तार से करना सम्भव नहीं है।।११५।।
एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभाव
क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि नि:फल: परमः ।।११६।। इह हि संसारिणोजीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसन्निधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभावनिर्वृत्तवास्ति । ततस्तस्य मनुष्यादिपर्यायेषुन कश्चनाप्येष एवेति टङ्कोत्कीर्णोऽस्ति, तेषां पूर्वपूर्वोपमर्दप्रवृत्तक्रियाफलत्वेनोत्तरोत्तरोपर्वमानत्वात् फलमभिलष्येत वा मोहसंवलनाविलयनात् क्रियायाः। क्रिया हि तावच्चेतनस्य पूर्वोत्तरदशाविशिष्टचैतन्यपरिणामात्मिका। सा पुनरणोण्वन्तसंगतस्य परिणतिवात्मनो मोहसंवलितस्य व्यणुककार्यस्यैव मनुष्यादिकार्यस्य निष्पादिकत्वात्सफलैव।।
विगत गाथा ११५ में सप्तभंगी का स्वरूप स्पष्ट करके अब इस गाथा में यह समझाते हैं कि मनुष्यादि पर्यायरूप विविध दशायें रागादिभावों का फल हैं; क्योंकि ये अनेकरूप दशायें वीतराग भावों का फल तो हो ही नहीं सकती। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) पर्याय शाश्वत नहीं परन्तु है विभावस्वभाव तो।
है अफल परमधरम परन्तु क्रिया अफल नहीं कही।।११६।। मनुष्यादि पर्यायों में यही ऐसी कोई शाश्वत पर्याय नहीं है; क्योंकि संसारी जीवों के स्वभावनिष्पन्न क्रिया नहीं है - ऐसी बात नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसारी जीवों के विभावस्वभाव से उत्पन्न होनेवालीराग-द्वेषमय क्रिया होती ही है।
यदि परम धर्म अफल है तोराग-द्वेषमय क्रिया अवश्य अफल नहीं है। तात्पर्य यह है कि वीतरागभावरूप क्रिया तो मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न करती नहीं है; पर राग-द्वेषरूप क्रिया तोमनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न करती ही है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं