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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन: द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार “इस लोक में अनादि कर्म पुद्गल की उपाधि के सद्भाव के कारण जिसके प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है - ऐसे संसारी जीव की राग-द्वेषरूप क्रिया वस्तुतः स्वभाव (विभावस्वभाव) निष्पन्न ही है; इसलिए उसके मनुष्यादि पर्यायों में से कोई भी पर्याय 'यही है' - ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व - पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया के फलस्वरूप होने से उत्तर-उत्तर पर्यायों के द्वारा नष्ट होती हैं । २४५ राग-द्वेषरूप क्रिया का फल तो मोह के साथ मिलन का नाश न हुआ होने से मानना चाहिए; क्योंकि प्रथम तो वह क्रिया चेतन की पूर्वोतर दशा से विशिष्ट चैतन्यपरिणामस्वरूप है । सैव मोहसंवलन विलयने पुनरणोरुच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्व्यणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात् परमद्रव्यस्वभावभूततया परमधर्माख्या भवत्यफलैव ।। ११६ ।। दूसरे जिसप्रकार दूसरे अणु के साथ युक्त किसी अणु की परिणति द्वि-अणुक कार्य की निष्पादक है; उसीप्रकार मोह के साथ मिलित आत्मा के संबंध में मनुष्यादि कार्य की निष्पादक होने से सफल ही है । जिसप्रकार जिसका संबंध दूसरे अणु के साथ नष्ट हो गया है - ऐसे अणु की परिणति द्वि-अणुककार्य की निष्पादक नहीं है; उसीप्रकार मोह के साथ मिलन का नाश होने पर द्रव्य की परमस्वभावभूत होने से परमधर्म कही जानेवाली क्रिया मनुष्यादि कार्य की निष्पादक न होने से अफल ही है । आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुकरण करते हैं; पर अन्त में मतार्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इससे सांख्यमत का निराकरण भी हो जाता है । सांख्य आत्मा को रागादि भावों का सर्वथा अकर्ता मानते हैं; पर जैन दर्शन के अनुसार यद्यपि शुद्धनिश्चयनय से आत्मा रागादि का कर्ता नहीं है; तथापि अशुद्धनिश्चयनय से आत्मा रागादि भावों का कर्ता है और वे रागादि भाव भी अफल नहीं हैं; क्योंकि उनसे मनुष्यादि पर्यायरूप विविध पर्यायों की उत्पत्ति होती है । उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि आत्मा की चैतन्यपरिणतिरूप क्रिया यदि मोह रहित हो तो मनुष्यादि संसारी पर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती और मोहसहित हो तो मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न करती है । चूँकि मोह सहित भाव अनेकप्रकार के होते हैं; इसलिए उनके फल में उत्पन्न होनेवाली
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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