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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
२४३ पररूप से युगपत् कथन अशक्य है; जो स्वरूप से पररूप से क्रमश: सत्-असत् है; जोस्वरूप से और स्वरूप-पररूपसे युगपत् सत्-अवक्तव्य है; जो पररूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् असत्-अवक्तव्य है; और जो स्वरूप से, पररूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् सत्-असत्-अवक्तव्य है।
ऐसे अनंत धर्मों वाले द्रव्य के एक-एकधर्म का आश्रय लेकर विवक्षितता और अविवक्षितता के विधि-निषेध के द्वारा प्रगट होनेवाली सप्तभंगी सतत् सम्यक्तया उच्चारित करने पर स्यात्काररूपी अमोघमंत्र पद के द्वारा एवकार' में रहनेवाले समस्त विरोध-विष के मोह को दूर करती है।" ___ अथ निर्धार्यमाणत्वेनोदाहरणीकृत्य जीवस्य मनुष्यादिपर्यायाणां क्रियाफलत्वेनान्यत्वं द्योतयति -
एसो त्तिणत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता।
किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो॥११६।। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि सप्तभंगी दो प्रकार की होती है-प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी|नयसप्तभंगी में अपेक्षास्पष्ट कर दी जाती है और प्रमाणसप्तभंगी में अपेक्षास्पष्ट न करके उसके स्थान पर स्यात् या कथंचित् पद का प्रयोग किया जाता है।
उपर्युक्त सप्तभंगी नयसप्तभंगी है; क्योंकि उसमें अपेक्षा स्पष्ट कर दी गई है कि स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है आदि।
आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका में स्पष्ट लिखते हैं कि यह नयसप्तभंगी है। वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि पंचास्तिकाय की १४वीं गाथा की टीका में 'स्यादस्ति' आदि प्रमाण वाक्यों द्वारा प्रमाणसप्तभंगी बताई गई है।
नयसप्तभंगी में ‘एवं' अर्थात् 'ही' शब्द का प्रयोग होता है और प्रमाणसप्तभंगी में 'भी' शब्द का प्रयोग होता है। वस्तु, किसी अपेक्षा सत् भी है और किसी अपेक्षा असत् भी है - यह प्रमाण सप्तभंगी के प्रयोग हैं और स्वरूप की अपेक्षा सत् ही है और पररूप की अपेक्षा असत् ही है - यह नयसप्तभंगी के प्रयोग हैं।
बिना अपेक्षा बताये 'ही' शब्द का प्रयोग करना दुर्नयसप्तभंगी है। स्याद् या कथंचित् लगाये बिना ही 'भी' लगाना दुष्प्रमाणसप्तभंगी है। ____आचार्य जयसेन लिखते हैं कि 'द्रव्य है - यह दुष्प्रमाणसप्तभंगी है और 'द्रव्य है हीं' - यह १. पंचास्तिकाय, गाथा १४ की तात्पर्यवृत्ति टीका