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प्रवचनसार
जान लेती हैं।।११४।।
११४वीं गाथा में सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद अथवा एक ही द्रव्य में अन्यपना और अनन्यपने में दिखाई देनेवाले विरोध का नयविवक्षा से शमन किया है; अब इस ११५वीं गाथा में उसी बात को आगे बढ़ाते हुए समस्त विरोध को समाप्त करनेवाली सप्तभंगी की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) अपेक्षा से द्रव्य 'है' 'है नहीं 'अनिर्वचनीय है। 'है है नहीं' इसतरह ही अवशेष तीनों भंग हैं।।११५|| अस्तीति च नास्तीति च भवत्यवक्तव्यमिति पुनद्रव्यम् ।
पर्यायेण तु केनचित् तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ।।११५।। स्यादस्त्येव १ स्यान्नास्त्येव २ स्यादवक्तव्यमेव ३स्यादस्तिनास्त्येव ४ स्यादस्त्यवक्तव्यमेव ५ स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव ६ स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यमेव ७; स्वरूपेण १ पररूपेण २ स्वपररूपयोगपद्यन ३स्वपररूपक्रमेण ४ स्वरूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यां५ पररूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यां ६स्वरूपपररूपस्वपरयौगपद्यैः ७ आदिश्यमानस्य स्वरूपेण सत:, पररूपेणासत: स्वरूपाभ्यां युगपद्वक्तुमशक्यस्य, स्वपररूपाभ्यां क्रमेण सतोऽसतश्च, स्वरूपस्वपरयौगपद्याभ्यां सतो वक्तुमशक्यस्य च, पररूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यामसतो वक्तुमशक्यस्य च, स्वरूपपररूपस्वपररूपयोगपद्यैः सतोऽसतो वक्तुमशक्यस्य चानन्तधर्मणो द्रव्यस्यैकैकं धर्ममाश्रित्य विवक्षिताविवक्षितविधिप्रतिषेधाभ्यामवतरन्ती सप्तभङ्गिकैवकारविश्रान्तमश्रान्तसमुच्चार्यमाणस्यात्कारामोघमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविषमोहमुदस्यति ।।११५।।
द्रव्य किसी पर्याय से अस्ति, किसी पर्याय सेनास्ति और किसी पर्याय से अवक्तव्य है। इसीप्रकार किसी पर्याय से अस्ति-नास्ति अथवा किसी पर्याय से अन्य तीन भंगरूप कहा गया है। ध्यान रहे यहाँ पर्याय शब्द अपेक्षा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आ. अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"द्रव्य स्वरूपकी अपेक्षासेस्यात्-अस्ति; पररूपकी अपेक्षासेस्यात्-नास्ति; स्वरूपपररूपकीयुगपत् अपेक्षासे स्यात्-अवक्तव्य; स्वरूप-पररूपके क्रम की अपेक्षासे स्यात्अस्ति-नास्ति: स्वरूपकीऔर स्वरूप-पररूपकीयगपत अपेक्षासेस्यात अस्ति-अवक्तव्य: पररूप और स्वरूप-पररूपकी अपेक्षासेस्यात्-नास्ति-अवक्तव्य और स्वरूपकी, पररूप की तथास्वरूप-पररूपकी युगपत् अपेक्षासेस्यात्-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य है।
द्रव्य का कथन करने में जो स्वरूप से सत् है; पररूप से असत् है; जिसका स्वरूप और