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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
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किम होय सत्ता से पृथक् जब द्रव्य सत्ता है स्वयं ।।१०५|| यदिद्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो वह नियम से असत् होगा और जो असत् हो, वह द्रव्य कैसे हो सकता है ? सत्ता से द्रव्य का भिन्न होना संभव नहीं है। इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता ही है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो दूसरी गति यह होगी कि वह असत् होगा अथवा सत्ता से पृथक् होगा। यदि वह असत् होतो ध्रौव्य के असंभव होने के कारण स्वयं स्थिर न होने से द्रव्य ही असत् हो जायेगा।
दूसरे यदि द्रव्य सत्ता से पृथक् हो तो सत्ता के बिना भी स्वयं रहता हुआ; इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है; ऐसी सत्ता कोही अस्त कर देगा।
किन्तु यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् हो तो ध्रौव्य के सद्भाव के कारण स्वयं स्थिर रहता तत: स्वयमेव द्रव्यं सत्त्वेनाभ्युपगन्तव्यं, भावभाववतोरपृथक्त्वेनान्यत्वात् ।।१०५।। अथ पृथक्त्वान्यत्वलक्षणमुन्मुद्रयति -
पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स।
अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं ।।१०६।। हुआ द्रव्य सिद्ध होता है और सत्ता से अपृथक् रहकर स्वयं स्थिर रहता हुआ; इतना मात्र जिसका प्रयोजन है - ऐसी सत्ता को ही सिद्ध करता है।
इसीलिए द्रव्य स्वयं ही सत्ता है, सत्तास्वरूप है-ऐसा स्वीकार करना चाहिए; क्योंकि भाव और भाववान का अपृथकत्व द्वारा अनन्यत्व है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए उक्त संदर्भ में बौद्ध और नैयायिक मतों को प्रस्तुत कर उनका निराकरण भी करते हैं। कहते हैं कि सत्ता के समवाय के कारण द्रव्य सत् नहीं है; अपितु सत्ता स्वयं ही द्रव्य है । वे यह भी कहते हैं कि द्रव्य उपचार से सत्तास्वरूप नहीं है, अपितु परमार्थ से सत्तास्वरूप है।
ध्यान रहे नैयायिक यह मानते हैं कि द्रव्य सत्ता के समवाय से सत् है, स्वयं सत् नहीं और बौद्ध यह मानते हैं कि द्रव्य का अस्तित्व उपचार से है, परमार्थ से नहीं।
द्रव्य स्वयं सत्तास्वरूप है और द्रव्य का अस्तित्व वास्तविक है, परमार्थ है; उपचार से नहीं - यहाँ यह कहकर नैयायिक और बौद्ध - दोनों मतों का खण्डन कर दिया। - इस गाथा और उसकी टीका में विविध तर्कों से यही सिद्ध किया गया है कि सत्ता और द्रव्य अभिन्न ही हैं, एक ही हैं।