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प्रवचनसार
यद्यपि यह परमसत्य है कि सत्ता गुण है, अस्तित्व नामक सामान्य गुण है और द्रव्य गुणी है; इसप्रकार इनमें गुण-गुणी भेद है; लक्षणभेद है; तथापि प्रदेशभेद नहीं है। जबतक प्रदेशभेद न हो, तबतक गुण-गुणी को भिन्न नहीं माना जाता, अभिन्न ही माना जाता है।।१०५||
विगत गाथा में यह कहा गया है कि सत्ता और द्रव्य अभिन्न ही हैं और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यद्यपि सत्ता और द्रव्य में पृथकता नहीं है; तथापि उनमें परस्पर अन्यता अवश्य है। इस गाथा में पृथक्त्व और अन्यत्व का लक्षण बताया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जिनवीर के उपदेश में पृथक्त्व भिन्नप्रदेशता। अतद्भाव ही अन्यत्व है तो अतत् कैसे एक हों।।१०६।। प्रविभक्तप्रदेशत्वं पृथक्त्वमिति शासनं हि वीरस्य । अन्यत्वमतद्धावो न तद्भवत् भवति
क थ म क म ।। १ ० ६ ।। प्रविभक्तप्रदेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्न संभाव्यते, गुणगुणिनो: प्रविभक्तप्रदेशत्वाभावात् शुक्लोत्तरीयवत्।
तथाहि - यथा य एव शुक्लस्य गुणस्य प्रदेशास्त एवोत्तरीयस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः, तथा य एव सत्ताया गुणस्य प्रदेशास्त एव द्रव्यस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः ।
एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षणसद्भावात् । अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव।।
तथाहि - यथा य: किलैकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिंद्रियविषयमापद्यमान: समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्त: शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः ।
विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व है और अतद्भाव अन्यत्व है - ऐसा भगवान महावीर का उपदेश है। जो उसरूप न हो, वह उससे अभिन्न कैसे हो सकता है ?
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
“विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व का लक्षण है। अत: यह पृथक्त्व तो सत्ता और द्रव्य में संभव नहींहै; क्योंकि गुण और गुणी में सफेदी और दुपट्टे के समान विभक्तप्रदेशत्व का अभाव होता