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प्रवचनसार
द्रव्यत्व गुण से स्थित होने से द्रव्य एकद्रव्यपर्याय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है।" ___ यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि अनेक द्रव्यों की मिली हुई पर्यायों को द्रव्यपर्याय या अनेकद्रव्यपर्याय या व्यंजनपर्याय कहते हैं और एक द्रव्य की पर्यायों को एकद्रव्यपर्याय या गुणपर्याय या अर्थपर्याय कहते हैं।
इस गाथा के भाव को आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; पर साथ में रंगों के उदाहरण के साथ संसारी जीव की विभावगुणपर्यायों पर भी घटित कर देते हैं।
विगत गाथा में अनेकद्रव्यपर्याय अर्थात् स्कन्धादि समानजातीय द्रव्यपर्यायों व मनुष्यादि असमानजातीय द्रव्यपर्यायों की बात की है और अब इस १०४वीं गाथा में एकद्रव्यपर्याय अर्थात् मतिज्ञानादि गुणपर्यायों की बात की जा रही है। अथ सत्ताद्रव्योरनन्तरत्वे युक्तिमुपन्यस्यति
ण हवदि जदि सद्दव्वं असधुव्वं हवदितं कहं दव्वं । हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ।।१०५।।
न भवति यदि सद्रव्यमसद्धृवं भवति तत्कथं द्रव्यम् ।
भवति पुनरन्यद्वा तस्माद्रव्यं स्वयं सत्ता ।।१०५।। यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एव सन्न स्यात्तदा द्वितयी गति: असद्वा भवति, सत्तात: पृथग्वा भवति । तत्रासद्भवद्धौव्यस्यासंभवादात्मानमधारयद्रव्यमेवास्तं गच्छेत् ।
सत्तात: पृथग्भवत् सत्तामन्तरेणात्मानं धारयत्तावन्मात्रप्रयोजनां सत्तामेवास्तं गमयेत् । स्वरूपतस्तु सद्भवध्रौव्यस्य संभवादात्मानं धारयद्रव्यमुद्गच्छेत् । सत्तातोऽपृथग्भूत्वाचात्मानं धारयत्तावन्मात्रप्रयोजनां सत्तामुद्गमयेत् ।
यहाँ गुण-पर्यायों की चर्चा करते हुए इस बात को विशेषरूप से स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक गुणपर्याय गुणों में से उत्पन्न होती है, पूर्व पर्याय में से नहीं ।।१०४||
विगत गाथाओं में एकद्रव्यपर्यायों और अनेकद्रव्यपर्यायों के द्वारा एक द्रव्य में उत्पादव्यय-ध्रौव्य बताये गये हैं और अब इस गाथा में युक्तिपूर्वक यह बताते हैं कि द्रव्य और सत्ता एक ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) यदि द्रव्य न हो स्वयं सत् तो असत् होगा नियमसे।