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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
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पर्याय होगी, कोई अन्य नहीं। जन्मक्षण के समान व्ययक्षण भी सुनिश्चित है। जब पर्याय का जन्मक्षण और व्ययक्षण सुनिश्चित है तो फिर क्या शेष रह जाता है ?
उक्त कथन से सहज ही क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि होती है।।१०२।।
विगत गाथा में यह बताया गया है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में काल-भेद नहीं है और अब इस गाथा में अनेकद्रव्यपर्यायों द्वारा द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बताये जा रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) उत्पन्न होती अन्य एवं नष्ट होती अन्य ही। पर्याय किन्तु द्रव्य ना उत्पन्न हो ना नष्ट हो।।१०३||
इह हि यथा किलैकस्ब्युणकः समानजातीयोऽनेकद्रव्यपर्यायोविनश्यत्यन्यश्चतुरणुकः प्रजायते, ते तु त्रयश्चत्वारो वा पुद्गला अविष्टानुत्पन्ना एवावतिष्ठन्ते ।
तथा सर्वेऽपिसमानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च समानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते।
यथा चैकोमनुष्यत्वलक्षणोऽसमानजातीयो द्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्यस्त्रिदशत्व-लक्षण: प्रजायते तौ च जीवपुद्गलौ अविनष्टानुत्पन्नावेवावतिष्ठेते। ___ तथा सर्वऽप्यसमानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च असमानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानुत्पन्नान्यवावतिष्ठन्ते।
एवमात्मना ध्रुवाणि द्रव्यपर्यायद्वारेणोत्पादव्ययीभूतन्युत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्याणि भवन्ति ॥१०३।।
द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और कोई अन्य पर्याय नष्ट होती है। फिर भी द्रव्य न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न ही होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“जिसप्रकार एक तीन अणुवाली त्रि-अणुक समानजातीय अनेकद्रव्यपर्याय विनष्ट होती है और दूसरी चार अणुवाली (चतुरणुक) समानजातीय अनेकद्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है; परन्तु वे तीन या चार पुद्गल परमाणु तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं।
इसीप्रकार सभी समानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं; परन्तु समानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं।
जिसप्रकार एक मनुष्यत्वरूप असमानजातीय द्रव्यपर्याय विनष्ट होती है और दूसरी