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प्रवचनसार
देवत्वरूप असमानजातीय द्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है; परन्तु वह जीव और पुद्गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्न हीरहते हैं।
इसीप्रकार सभी असमानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट हो जाती हैं और उत्पन्न होती हैं; परन्तु असमानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं।
इसप्रकार द्रव्य अपने द्रव्यरूपसेध्रुव और द्रव्यपर्यायोंद्वारा उत्पाद-व्ययरूपहै; इसप्रकार द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए मोक्षपर्याय के उत्पाद, मोक्षमार्मरूप पर्याय के व्यय और शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषयभूत द्रव्य के ध्रुवरहने का उदाहरण देते हैं। साथ में अथवा के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों को भी प्रस्तुत कर देते हैं। अथ द्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण चिन्तयति -
परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सद्विसिटुं। तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति ।।१०४।।
परिणमति स्वयं द्रव्यं गुणतश्च गुणान्तरं सदविशिष्टम् ।
तस्माद् गुणपर्याया भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ।।१०४।। एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः, गुणपर्यायाणामेकद्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत्।
आचार्य अमृतचन्द्र समानजातीय और असमानजातीय द्रव्यपर्यायों पर घटित करते हैं तथा आचार्य जयसेन द्रव्यपर्यायों के साथ-साथ गुणपर्यायों पर भी घटित करते हैं।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि उत्पन्न और नष्ट तो पर्यायें होती हैं, द्रव्य तो सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट ही रहता है। दूसरी बात यह है कि पर्याय में से पर्याय का उत्पाद नहीं होता; पर्याय की उत्पत्ति तो द्रव्य में से ही होती है।
ध्यान रहे, यहाँ उदाहरण के रूप में सम्पूर्ण चर्चा द्रव्य-पर्यायों की ही हो रही है; अतः सभी बातों को द्रव्य-पर्यायों पर घटित करना ही अधिक उचित है।
गुण-पर्यायों की चर्चा अगली गाथा में की ही जा रही है।।१०३।।
विगत गाथा में अनेकद्रव्यपर्यायों (द्रव्यपर्यायों) द्वारा द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बताये गये हैं और इस गाथा में एकद्रव्यपर्यायों (गुणपर्यायों) द्वारा द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य