________________
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
१८९
जिसप्रकार भिन्न-भिन्न कमरों में ले जाया गया रत्नदीपक रत्नदीपकरूप ही रहता है, कमरों को प्रकाशित करने के कारण कमरोंरूप नहीं हो जाता और न कमरों की क्रिया को करता है; उसीप्रकार भिन्न-भिन्न शरीरों में रहनेवाला आत्मा आत्मारूप ही रहता है, वह किंचित्मात्र भी शरीररूप नहीं होता और न शरीर की क्रिया करता है। अथ द्रव्यलक्षणमुपलक्षयति -
अपरिच्चत्त-सहावेणुप्पा-दव्वयधुवत्त-संबद्धं । गुणवं च सपजायं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ।।१५।।
अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्ययध्रुवत्वसंबद्धम् । गणवच्च सपर्यायं यत्तद द्रव्यमिति ब्रवन्ति ।।९५।।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि देह और आत्मा की एकरूप मनुष्यादि पर्यायों में अपनापन रखना अर्थात् अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि रखना परसमयपना है और एकमात्र आत्मा में अपनापन रखना अर्थात् अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि रखना स्वसमयपना है।।९४||
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा से ही आरंभ हुआ है। इसमें यह कहा गया है कि पर्यायमूढ जीव परसमय हैं; इसकारण आरंभ में ही पर्यायों की चर्चा विस्तार से की गई है। इसी संदर्भ में पर्याय के द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय भेद भी किये गये और यह कहा गया असमानजातीयद्रव्यपर्याय में एकत्व ही मुख्यत: परसमयपना है।
अतः अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि द्रव्य क्या है, जिसकी पर्यायों में अपनापन परसमयपना, मिथ्यात्व है। इस शंका के समाधान के लिए आगामी गाथा में द्रव्य का लक्षण बताते हैं, द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत) निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययधुवयुक्त गुण
पर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें।।९५|| जो स्वभाव (सत्ता) को छोड़े बिना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-इन तीन से तथा गुण और पर्याय - इन दो से सहित है; उसे द्रव्य कहते हैं। १. तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र), अध्याय ५, सूत्र ३०, २९, ३८