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प्रवचनसार
रहा है। उनका यह संकोच इस रूप में व्यक्त हुआ है कि वे कहते हैं कि यह सूक्ष्मपरसमय का कथन है। यद्यपि गाथा में ऐसा कोई भेद नहीं किया है, तथापि अमृतचन्द्र टीका के आरम्भ में ही यह बात लिखते हैं।
'श्रद्धा के दोषवाले मिथ्यादृष्टि स्थूलपरसमय और चारित्र के दोषवाले सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्मपरसमय हैं - इसप्रकार का भाव ही इसी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने व्यक्त किया है। उनके मूल कथन का भाव इसप्रकार है - ___ कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्मभावनालक्षणवाले परमोपेक्षासंयम में स्थित होने में अशक्त होता हुआ काम-क्रोधादि अशुद्ध (अशुभ) परिणामों से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का छेद करने के लिए जब पंचपरमेष्ठी का गुणस्तवन करता है, भक्ति करता हैतब सूक्ष्मपरसमयरूप परिणमित होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है और यदि शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है - ऐसा एकान्त से मानता है तोस्थूलपरसमयरूप परिणाम से स्थूल परसमय होता हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है।
उक्त कथन में मिथ्यादृष्टि कोस्थूलपरसमय और सराग सम्यग्दृष्टि को सूक्ष्मपरसमय कहा है। इससे यह सहज ही फलित होता है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि स्वसमय हैं।"
इस गाथा में तो मुख्यरूप से यही कहा गया है कि देह और उसमें विद्यमान आत्मा को मिलाकर हम स्वयं को मनुष्य कहते हैं और जिनवाणी में भी व्यवहारनय से इन्हें एक कहा गया है। समयसार की २७वीं गाथा में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है।
यहाँ यह कहा जा रहा है कि देह और आत्मा को एक कहना तो मनुष्यव्यवहार है और देह में विद्यमान, पर देह से भिन्न आत्मा को अपना मानना-कहना आत्मव्यवहार है।
इस आत्मव्यवहार से अपरिचित जो प्राणी मनुष्यव्यवहार के आधार पर देहसंबंधी सम्पूर्ण क्रियाकलाप को छाती से लगाते हैं; धर्म मानकर उसका सेवन करते हैं, उक्त क्रियाकाण्ड करके स्वयं को धर्मात्मा समझते हैं; वे मिथ्यादृष्टि हैं, परसमय हैं।
आत्मा का व्यवहार तो चेतनाविलास में अविचल रहना है; इसप्रकार जो ज्ञानी जीव उक्त आत्मव्यवहार को ही अपनी क्रिया मानते हैं, उसे ही धर्मरूप स्वीकार करते हैं; अनेक कमरों में घूमनेवाले रत्नदीपक की भाँति आत्मा को एकमात्र चेतनाविलासरूप स्वीकार करनेवाले वे ज्ञानी धर्मात्मा स्वसमय हैं।
१.समयसार अनुशीलन भाग-१, पृष्ठ ३४ से ३८ तक