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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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जो जीव श्रमण अवस्था में इन सत्तासहित सविशेष पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता; वह श्रमण, श्रमण नहीं है; उससे धर्म का उद्भव नहीं होता।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“सादृश्यास्तित्व से समानता कोधारण करते हुए भी स्वरूपास्तित्व से विशेषतासे युक्त द्रव्यों को स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक न जानता हुआ, न श्रद्धा करता हुआ जो जीव मात्र श्रमणता (द्रव्यमुनित्व) से आत्मा का दमन करता है; वह वास्तव में श्रमण नहीं है।
जिसे रेत और स्वर्णकणों का अन्तर ज्ञात नहीं है, उसधूल को धोनेवाले पुरुष को जिस प्रकार स्वर्णलाभ नहीं होता; उसीप्रकार उक्त श्रमणाभासों में से निरूपसम आत्मतत्त्व की उपलब्धि लक्षणवाले धर्म का उद्भव नहीं होता, धर्मलाभ प्राप्त नहीं होता।" अथ -
'उपसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इति प्रतिज्ञाय -
'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो' इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य -
'परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं।
तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो।।' सर्राफा बाजार की नालियों में बहुत स्वर्णकण गिर जाते हैं, जिन्हें लोग धूल को छानछान कर निकालते हैं, धो-धोकर निकालते हैं। जो लोग यह काम करते हैं, उन्हें धूलधोया कहते हैं। जिस धूलधोया को स्वर्ण कण और रेत-कणों में अन्तर समझ में नहीं आता, उसे स्वर्ण कणों की प्राप्ति कैसे हो सकती है? वह कितनी ही मेहनत क्यों न करे, उसे स्वर्ण कणों की प्राप्ति नहीं होगी। इसीप्रकार जिस श्रमण को स्व-पर का विवेक नहीं है. वह श्रमण तप करने के नाम पर कितना ही कष्ट क्यों न उठावे; परन्तु उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होगी। न तो उसे स्वयं अनंतसुख की प्राप्ति होगी और न उससे अन्य जीवों का ही कल्याण हो सकता है।।९१।।
९१वीं गाथा में यह कहा गया है कि जो स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक स्व-पर पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता, वह श्रमण, श्रमण नहीं है; उसको धर्म का उद्भव नहीं होता।
अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि मोहदृष्टि से रहित, आगमकुशल, वीतरागचारित्र में आरूढ़ श्रमण साक्षात् धर्म हैं और उसको धर्म का उद्भव होता है।