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प्रवचनसार
ही पर से एकत्व का मोह विलीन हो जाता है और राग-द्वेष भी टूटने लगते हैं।
यहाँ एक प्रश्न होता है कि यद्यपि ज्ञान जीव का असाधारण गुण है, विशेष गुण है; तथापि वह सभी जीवों में पाया जाता है। सभी जीवों में पाये जाने के कारण एकप्रकार से वह सामान्य गुण भी है। इस ज्ञान नामक गुण के माध्यम से जड़ से भिन्न सभी जीवों को तो जाना जा सकता है; परन्तु परजीवों से भी भिन्न अपने आत्मा को नहीं। हमें तो परजीवों से भी भिन्न निज आत्मा को जानना है, हम उसे कैसे जाने ?
मेरा ज्ञानगुण मेरे में है और आपका ज्ञानगुण आप में | मेरा ज्ञानगुण ही मेरे लिए ज्ञान है; क्योंकि मैं तो उसी से जानने का काम कर सकता हूँ, आपके ज्ञानगुण से नहीं। आपका ज्ञानगुण तो मेरे लिए एकप्रकार से ज्ञान नहीं, ज्ञेय है। अन्य ज्ञेयों के समान यह भी एक ज्ञेय है। अथ जिनोदितार्थश्रद्धानमन्तरेण धर्मलाभोन भवतीति प्रतर्कयति -
सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि व सामण्णे। सद्दहदि ण सो समणो सत्तो धम्मो ण संभवदि।।९१।।
सत्तासंबद्धानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामण्ये।
श्रद्दधाति न स श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ।।९१।। यो हिनामैतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपिस्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्टविशेषाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छिन्दन्नश्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति स खलु न नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्नरेणुकनककणिकाविशेषाधूलिधावकात्कनकलाभ इव निरुपरागात्मतत्त्वोपलम्भलक्षणोधर्मोपलम्भोन संभूतिमनुभवति ।।९१।।
अत: अपने ज्ञानगुण से अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को जानो, पहिचानो और उसी में जम जावो, रम जावो; सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है ।।९०।।
विगत गाथा में यह कहा गया है कि स्व-पर का विवेक धारण करनेवालों को मोहांकुर उत्पन्न नहीं होता; इसलिए हमें भेदविज्ञानपूर्वक स्व-पर को जानने में पूरी शक्ति लगा देना चाहिए।
अब इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि जिस श्रमण को ऐसा भेदविज्ञान नहीं है, वह श्रमण, श्रमण ही नहीं है; श्रमणाभास है। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों के श्रद्धान बिना शुद्धात्मानुभवरूप धर्म की प्राप्ति नहीं होती। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) द्रव्य जो सविशेष सत्तामयी उसकी दृष्टि ना। तो श्रमण हो पर उस श्रमण से धर्म का उद्भव नहीं।।९१||