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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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आचार्य अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“मोह का क्षय करने के प्रति प्रवणबुद्धिवाले ज्ञानीजनों! इस जगत में आगम में कथित अनन्त गुणों में से असाधारणपना को प्राप्त विशेष गुणों द्वारा स्व-पर का विवेक प्राप्त करो।
अब इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं - सत् और अहेतुक (अकारण) होने से स्वत:सिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाशवाला होने से स्व-पर के ज्ञायक मेरे चैतन्य द्वारा जो समानजातीय या असमानजातीय द्रव्यों को छोड़कर मेरे आत्मा में वर्तनेवाले आत्मा के द्वारा मैं अपने आत्मा को तीनों काल में ध्रुवत्व को धारण करनेवाला द्रव्य जानता हूँ।
इसप्रकार पृथकरूप से वर्तमान स्वलक्षणों के द्वारा आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य आत्माओं को भी तीनों काल में ध्रुवत्व धारक द्रव्य के रूप में निश्चित करताहूँ।
ततो नाहमाकाशं, न धर्मो, नाधर्मो, न च कालो, न पुद्गलो, नात्मान्तरं च भवामि, यतोऽमीष्वेकापवरकप्रबोधितानेकदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि मच्चैतन्यं स्वरूपादप्रच्युतमेव मां पृथगवगमयति।
एवमस्य निश्चितस्वपरविवेकस्यात्मनोन खलु विकारकारिणो मोहाङ्कुरस्य प्रादुर्भूति: स्यात्।।९०॥
इसलिए मैं आकाश नहीं हूँ, धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ और आत्मान्तर (अन्य आत्मा) भी नहीं हूँ; क्योंकि मकान के एक कमरे में जलाये गये अनेक दीपकों के प्रकाश की भाँति यह द्रव्य इकट्ठे होकर रहते हुए भी मेरा चैतन्य निजस्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ मुझे पृथक् बतलाता है। इसप्रकार स्व-पर विवेक के धारक इस आत्मा को विकार करनेवाला मोहांकुर उत्पन्न ही नहीं होता।"
उक्त गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि जिसप्रकार एक कमरे में अनेक दीपक जलते हों तो ऐसा लगता है कि सबका प्रकाश परस्पर मिल गया है, एकमेक हो गया है; किन्तु जब एक दीपक उठाकर ले जाते हैं तो उसका प्रकाश उसके ही साथ जाता है
और उतना प्रकाश कमरे में कम हो जाता है; इससे पता चलता है कि कमरे में विद्यमान सभी दीपकों का प्रकाश अलग-अलग ही रहा है।
उसीप्रकार इस लोक में सभी द्रव्य एकक्षेत्रावगाहरूप से रह रहे हैं, महासत्ता की अपेक्षा से एक ही कहे जाते हैं; तथापि स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा वे जुदे-जुदे ही हैं।
इस लोक में विद्यमान सभीचेतन-अचेतन पदार्थों से मेरी सत्ता भिन्न ही है- ऐसा निर्णय होते