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प्रवचनसार
पर भेदविज्ञान करके मोह-राग-द्वेष के नाश के लिए आत्मानुभूतिपूर्वक पर से भिन्न निज आत्मा में अपनापन स्थापित करके उसी में जम जाना, रम जाना चाहिए ।।८८-८९ ।।
विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि जो स्व और पर की भिन्नता जानकर स्व में जमतेरमते हैं; मोह को क्षय करनेवाले वे सर्व दुखों से मुक्त हो जाते हैं।
अब इस गाथा में यह बताया जा रहा है कि अपनी निर्मोहता चाहते हो तो आगम के अभ्यास से स्व-पर भेदविज्ञान करो, स्व-पर का विवेक करो।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथ सर्वथा स्वपरविवेकसिद्धिरागमतो विधातव्येत्युपसंहरति -
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु। अभिगच्छदुणिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ।।१०।। तस्मान्जिनमार्गाद्गुणैरात्मानं परं च द्रव्येषु ।
अभिगच्छतु निर्मोहमिच्छति यद्यात्मन आत्मा ।।१०।। इह खल्वाममनिमदित्तेष्वनन्तेषु गुणेषु कैश्चिद्गुणैरन्ययोगव्यवच्छेदकत्त्यासाधारणतामुपादाय विशेषणतामुपगतैरनन्तायां द्रव्यसंततौ स्वपरविवेकमुपगच्छन्तु मोहप्रहाणप्रवणबुद्धयोलब्धवर्णाः। __ तथाहि - यदिदं सदकारणतया स्वत:सिद्धमन्तर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीया समानजातीयं वा द्रव्यमन्यदपहाय ममात्म-न्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यं जानामि।
एवं पृथक्त्ववृत्तस्वलक्षणैर्द्रव्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यमाकाशं धर्ममधर्मं कालं पदगलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि ।
(हरिगीत ) निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से।
तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ।।९०|| इसलिए यदि आत्मा अपनी निर्मोहता चाहता है तो जिनमार्ग से गुणों के द्वारा सभी द्रव्यों में स्व और पर को जानो।