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प्रवचनसार
इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के आरंभ से ही बात को उठाते हैं। उनका कथन मूलत: इसप्रकार है -
“निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ इसप्रकार पाँचवीगाथा में प्रतिज्ञा करके,
चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है। - इसप्रकार ७वीं गाथा में साम्य ही धर्म है - ऐसा निश्चित करके,
जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित ।
हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है।। इति यदात्मनोधर्मत्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्प्रसिद्धये च - ____ 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिव्वाणसुहं'
इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च विरोधिनौ निर्ध्वस्तौ. शद्धोपयोगस्वरूपंचोपवर्णितं, तत्प्रसादजौचात्मनोज्ञानानन्दौसहजौसमुद्योतयता संवेदनस्वरूपं सुखस्वरूपंच प्रपञ्चितम्, तदधुना कथं कथमपि शुद्धोपयोगप्रसादेन प्रसाध्य परमनिस्पृहामात्मतृप्तांपारमेश्वरीप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलोभूत्वा प्रलीनभेदवासनोन्मेष स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मीत्यवतिष्ठते -
जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि ।
अब्भुट्टिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो।।९२।। - इसप्रकार ८वींगाथा में जो आत्मा का धर्मत्व कहना आरंभ किया और जिसकी सिद्धि के लिए -
प्राप्त करते मोक्षसुख शद्धोपयोगी आतमा । - इसप्रकार११वीं गाथा में निर्वाणसुख के साधनभूत शुद्धोपयोग का अधिकार आरंभ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोग को हेय बताया, शुद्धोपयोग का वर्णन किया, शुद्धोपयोग के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुए ज्ञान और सुख के स्वरूप का विस्तार किया; अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से उस आत्मा के धर्मत्व को सिद्ध करके परमनिस्पृह, आत्मतृप्त ऐसी पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुए, कृतकृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, भेदवासना की प्रगटता का प्रलय करते हुए मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ' - इसप्रकार रहते हैं।"