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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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महादुख संकट निकट है।
तात्पर्य यह है कि एकाध स्वर्गादिक के भव को प्राप्त कर फिर उनकी अनंतकाल तक के लिए निगोद में जाने की तैयारी है। निगोद को छोड़कर और कौन-सी पर्याय है कि जिसमें महादुख संकटहो?
इसप्रकार इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि जो जीव अशुभभावों को छोड़ और शुभभावों में लीन रहकर अपने को धर्मात्मा मानते हैं और ऐसा समझते हैं कि हमारा कल्याण शुभभावों से ही हो जायेगा तो वे बड़े धोखे में हैं। यदि वे शुभभाव में पड़े रहे तो एकाध भव स्वर्गादिक का प्राप्त कर फिर अनंतकाल तक के लिए निगोद में जानेवाले हैं। इस बात का संकेत आचार्यदेव ने इन शब्दों में दिया है कि उनके महादुख संकट निकट है।।७९।।
इस गाथा के बाद आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में दो गाथाएँ प्राप्त होती हैं; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत की तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। वे गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं -
तवसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापवग्गमग्गकरो। अमरासुरिंदमहिदो देवो सो लोयसिहरत्थो।।५।। तं देवदेवदेवं जदिवरवसहं गुरुं तिलोयस्स। पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ।।६।।
(हरिगीत ) हो स्वर्ग अर अपवर्ग पथदर्शक जिनेश्वर आप ही। लोकाग्रथित तपसंयमी सुर-असुर वंदित आप ही||५|| देवेन्द्रों के देव यतिवरवृषभ तुम त्रैलोक्यगुरु।
जो नमें तुमको वे मनुज सुख संपदा अक्षय लहें ।।६।। तप और संयम से सिद्ध हुए अठारह दोषों से रहित वे देव, स्वर्ग तथा मोक्षमार्ग के प्रदर्शक, देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों से पूजित तथा लोक के शिखर पर स्थित हैं।
जो देवों के भी देव हैं, देवाधिदेव हैं, मुनिवरों में श्रेष्ठ हैं और तीन लोक के गुरु हैं; उनको जो मनुष्य नमस्कार करते हैं, वे अक्षयसुख को प्राप्त करते हैं।
ये वही गाथाएँ हैं; जिनकी टीका में आचार्य जयसेन ने संयम और तप की अत्यन्त मार्मिक परिभाषाएँ दी हैं; जो इसप्रकार हैं -
“सम्पूर्ण रागादि परभावों की इच्छा के त्याग से स्वस्वरूप में प्रतपन-विजयन तप है