________________
१४०
प्रवचनसार
और बाह्य में इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम के बल से शुद्धात्मा में संयमनपूर्वक समरसीभाव से परिणमन संयम है।" ___ इन गाथाओं में ऐसे विशेषणों का प्रयोग है, जिनमें कुछ विशेषण अरहंतों में, कुछ विशेषण सिद्धों में और कुछ विशेषण दोनों में ही पाये जाते हैं। स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग के अथ कथं मया विजेतव्या मोहवाहिनीत्युपायमालोचयति -
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहि। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८।।
यो जानात्यर्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः।
स जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लयम् ।।८०।। उपदेशक - यह अरहंत का विशेषण है और लोकशिखर पर स्थित - यह सिद्धों का विशेषण है; इसप्रकार इन गाथाओं में सामान्यरूप से अरहंत और सिद्ध - दोनों परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।
दूसरी गाथा का प्रथम पद भी ध्यान देने योग्य है। वह है देवदेवदेवं । देवदेव माने देवों के देव अर्थात् इन्द्र-देवेन्द्र और देवदेवदेव माने देवों के देव देवेन्द्र, उनके भी देव जिनेन्द्रदेव । इसप्रकार देवदेवदेव का अर्थ हुआ देवेन्द्रों के देव अरहंत-सिद्ध भगवान।
इसीप्रकार एक पद है जदिवरवसह यतिवरवृषभ । यति माने साधु, यतिवर माने श्रेष्ठ साधु और यतिवरवृषभ माने श्रेष्ठ साधुओं में ज्येष्ठ-श्रेष्ठ । इसप्रकार दूसरी गाथा की पहली पंक्ति का अर्थ हुआ जो तीन लोक के गुरु हैं, देवेन्द्रों के भी देव हैं और साधुओं में भी श्रेष्ठतम हैं, सभी से श्रेष्ठ हैं, सभी से ज्येष्ठ हैं, बड़े हैं।
इसप्रकार इन गाथाओं में स्वर्गापवर्गमार्ग के उपदेशक देवाधिदेव अरहंत भगवान और लोकाग्रस्थित सिद्धभगवान को स्मरण किया गया है।। ५-६।।
यह तो आपको याद होगा ही कि ७९वीं गाथा में आचार्यदेव ने यह कहा था कि अब मैंने मोह की सेना को जीतने के लिए कमर कस ली है। अत: अब इस ८०वीं गाथा में मोह की सेना को जीतने का उपाय बताया जा रहा है। आचार्यदेव कहते हैं कि अब मेरे द्वारा मोह की सेना किसप्रकार जीती जानी चाहिए - इसके उपाय का विचार करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत )