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प्रवचनसार
सब छोड़ पापारंभ शुभचारित्र में उद्यत रहें।
पर नहीं छोड़े मोह तो शुद्धातमा को ना लहें।।७९|| पापारंभ को छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होने पर भी यदि जीव मोहादिक को नहीं छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता।
यः खलु समस्तसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणं परमसामायिकं नाम चारित्रं प्रतिज्ञायापि शुभोपयोगवृत्त्या बकाभिसारिकयेवाभिसार्यमाणोन मोहवाहिनीविधेयतामवकिरति स किल समासन्नमहादु:खसङ्कटः कथमात्मानमविप्लुतं लभते।
अतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा कक्षेयम् ।।७९।। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जो जीव या जो मुनिराज समस्त सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप परमसामायिक नामक चारित्र की प्रतिज्ञा करके भी धूर्त अभिसारिका (नायिका - संकेत के अनुसार अपने प्रेमी से मिलने जानेवाली स्त्री) की भाँति शुभोपयोगपरिणाति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त होता हआ अर्थात् शुभोपयोग परिणति के प्रेम में फंसता हआमोह की सेना के वशवर्तनपने को दूर नहीं कर डालता, जिसके महादुख संकट निकट है - ऐसा वह शुद्ध आत्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है ?
इसलिए मेरे द्वारा मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने के लिए कमर कस ली गई है।"
अरे देखो, यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ आचार्यदेव शुभोपयोगरूप परिणति की तुलना धूर्त अभिसारिका से कर रहे हैं; एक प्रकार से उसे धूर्त अभिसारिका ही बता रहे हैं।
साहित्य में समागत नायिकाभेदों में अभिसारिका नामक भी एक भेद है। अभिसारिका वह नायिका है, जो अपने पति को बताये बिना, उसकी अनुमति बिना ही पहले से सनिश्चित संकेत के अनुसार छुपकर अपने प्रेमी से मिलने जाती है। एक तो यह अभिसार ही खोटा काम है, दूसरे वह प्रेमिका मात्र अभिसारिका ही नहीं है, अपितु धूर्त भी है।
इसप्रकार यहाँ शुभोपयोग परिणति को धूर्त अभिसारिका कहा गया है।
जिसप्रकार कोई व्यक्ति शादी में सात फेरे लेते समय तो अपनी धर्मपत्नी को जीवनभर न त्यागने का वचन देता है और बाद में उसकी उपेक्षा कर धूर्त अभिसारिका के चंगुल में फंस जाता है, ऐसे व्यक्ति के महादुख संकट निकट है; उसीप्रकार जिन मुनिराजों ने दीक्षा लेते समय तो शुद्धोपयोग में रहने का संकल्प किया था, प्रतिज्ञा ली थी और अब धर्त अभिसारिका के समान शुभोपयोग परिणति में उलझ कर रह गये हैं, उसी में लीन हो गये हैं; ऐसे मुनिराजों के