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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १३७ तो पुण्य और पाप में द्वैत (भिन्नता) ठहरता है और न शुभाशुभभावों में द्वैत सिद्ध होता है। शुभ और अशुभ - दोनों ही भाव अशुद्धभाव हैं और इन अशुद्धभावों से कर्मों का बंधन ही होता है, कर्मबंधन छूटता नहीं है, टूटता नहीं है। इसप्रकार शुभाशुभभाव बंध के कारण हैं; आस्रव हैं। पुण्य-पाप तो आस्रव-बंध ही हैं। अथ यदि सर्वसावद्ययोगमतीत्य चरित्रमुपस्थितोऽपि शुभोपयोगानुवृत्तिवशतया मोहादोन्नोन्मूलयामि; ततः कुतो मे शुद्धात्मलाभ इति सर्वारम्भेणोत्तिष्ठते - चत्ता पाचारंभं समुट्ठिदो का सुहम्मि चरियम्मि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ।।७९।। त्यक्त्वा पापारम्भं समुत्थितो वा शुभे चरित्रे । न जहाति यदि मोहादीन्न लभते स आत्मकं शुद्धम् ।।७९।। कहा भी जाता है - पुण्यास्रव और पापास्रव, पुण्यबंध और पापबंध । इसप्रकार पुण्य और पाप आस्रव-बंध के ही रूप हैं। यही कारण है कि आचार्य शुभपरिणामाधिकार में भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आत्मा का हित चाहनेवालों को एकमात्र शुद्धोपयोग ही शरण है।। यह शुभपरिणामाधिकार शुभपरिणामों की महिमा बताने के लिए नहीं, अपितु उसका सही रूप दिखाकर उसके प्रति होनेवाले आकर्षण को तोड़ने के लिए लिखा गया है।।७८।। विगत गाथाओं के अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुँच जाने पर कि एकमात्र शुद्धोपयोग ही शरण है; अब इस गाथा में कहते हैं कि अब मैं इस शुद्धोपयोग के द्वारा मोह को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए कमर कस के तैयार हूँ। आ. अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा की उत्थानिका इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं 'सर्व सावद्ययोग के त्याग पूर्वक चारित्र अंगीकार किये जाने पर भी यदि मैं शुभोपयोग परिणति के वश होकर मोहादि का उन्मूलन न करूँ तो मुझे शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे होगी? इसप्रकार विचार करके ज्ञानी मोहादि के उन्मूलन के प्रति सर्वारंभ पूर्वक कटिबद्ध होता है।" गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत )
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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