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प्रवचनसार
हैं दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते ।।७५|| ते पुनरुदीर्णतृष्णा: दुःखितास्तृष्णाभिर्विषयसौख्यानि ।
इच्छन्त्यनुभवन्ति च आमरणं दुःखसंतप्ताः ।।५।। अथ ते पुनस्त्रिदशावसाना: कृत्स्नसंसारिण: समुदीर्णतृष्णा: पुण्यनिर्तिताभिरपि तृष्णाभिःखबीजतयाऽत्यन्तदुःखिता: सन्तोमृगतृष्णाभ्य इवाम्भांसि विषयेभ्य: सौख्यान्यभिलषन्ति। तदुःखसंतापवेगमसहमाना अनुभवन्ति च विषयान् जलायुकाइव, तावद्यावत्क्षयं यान्ति । __यथा हि जलायुकास्तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखाङ्कुरेण क्रमत: समाक्रम्यमाणा दुष्टकीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते, एवममी अपि पुण्यशालिन: पापशालिन इव तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखाङ्कुरेण क्रमत: समाक्रम्यमाणा विषयानभिलषन्तस्तानेवानुभवन्तश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते।
अत: पुण्यानि सुखाभासस्य दुःखस्यैव साधनानि स्युः।।७५।।
जिनकी तृष्णा उदित है; वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरणपर्यन्त विषयसुखों को चाहते हैं और दुःखों से संतप्त होते हुए, दुखदाह को सहन न कर पाने से उन्हें भोगते हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“उदित तृष्णावाले देवों सहित समस्त संसारीजीव तृष्णा दुख का बीज होने से पुण्यजनित तृष्णाओंद्वारा भी अत्यन्त दुखी होते हुए मृगतृष्णा में सेजल कीभांति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस दुख संताप के वेग को सहन न कर पाने से जोंक (गोंच) के समान विषयों को तबतक भोगते हैं; जबतक कि विनाश (मरण) को प्राप्त नहीं होते।
जिसप्रकार जोंक तृष्णाबीज से वृद्धि को प्राप्त होते हुए दुखांकुरों से क्रमश: आक्रान्त होने से दूषित रक्त कोचाहती है और उसी को भोगती हुई मरणपर्यन्त दुखी होती है, क्लेश को पाती है; उसीप्रकार पुण्यात्मा जीव भी पापियों के समान ही तृष्णा बीज से वृद्धि को प्राप्त होते हुए दुखांकुरों से क्रमश: आक्रान्त होने से विषयों को चाहते हुए और उन्हीं को भोगते हुए मरणपर्यन्त दुख पाते हैं, क्लेश पाते हैं।
इससे सिद्ध होता है कि पुण्य सुखाभासरूप दुख का ही साधन है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव सामान्यत: आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं; परन्तु निष्कर्ष के रूप में अन्त में लिखते हैं कि इससे यह निश्चित हुआ कि तृष्णारूपी रोग को उत्पन्न करनेवाला होने से पुण्य वास्तव में दुख का ही कारण है।