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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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इसप्रकार इस गाथा में अनेकप्रकार से यही स्पष्ट किया गया है कि जिनके तृष्णा है; वे अथ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वमुद्योतयति -
सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । तं इंदिएहिं लद्धं तं सोखं दुक्खमेव तहा ।।७६।।
सपरं बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम ।
यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमेव तथा ।।७६।। दुखी ही हैं। पाप के उदयवाले प्रतिकूल संयोगों से अथवा अनुकूल संयोगों के न होने से दुखी हैं और पुण्य के उदयवाले तृष्णा के कारण भोगों को भोगते हुए भी आकुलित हैं, दुखी हैं। इस संसार में सुखी कोई नहीं है। वैराग्यभावना में भी कहा गया है कि -
___ जो संसारविर्षे सुख हो तो तीर्थंकर क्यों त्यागें।
काहे को शिवसाधन करते संयम सौं अनुरागें। यदि संसार में सुख होता तो सर्वानुकूल संयोगों के धनी महापुण्यवान तीर्थंकर इस संसार का परित्याग करके दीक्षा क्यों लेते ? शान्तिनाथ भगवान तो तीर्थंकर होने के साथ-साथ चक्रवर्ती और कामदेव भी थे। उनसे अधिक पुण्यवान और कौन हो सकता है; पर पुण्योदय से प्राप्त समस्त अनुकूलताओं को छोड़कर नग्न दिगम्बर दीक्षा लेकर वे आत्मतल्लीन हो गये; क्योंकि सच्चा सुख आत्मरमणता में है; अनुकूल भोगों के भोगने में नहीं।।७५।।।
विगत गाथाओं में यह बात विस्तार से स्पष्ट की जा चुकी है कि जिन्हें हम लोक में पुण्यवान कहते हैं, सुखी कहते हैं; वस्तुत: वे लोग भी दुखी हैं; क्योंकि उनके तृष्णा विद्यमान है।
वस्तुत: बात यह है कि ‘पाप के समान ही पुण्य भी हेय है' - इस बात को विविधप्रकार से स्पष्ट कर देने पर भी अज्ञानी की पुण्य में उपादेयबुद्धि बनी ही रहती है। अतः अब पुण्योदय से प्राप्त होनेवाला सुख भी कितना असार है - यह समझाने के लिए एक बार पुनः गाथा में पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले इन्द्रियसुख का स्वरूप समझाते हुए कहते हैं कि इन्द्रियसुख सुख नहीं, वस्तुतः अनेक प्रकार से दुख ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है।
है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है।।७६।। जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है; वह सुख परसंबंधयुक्त है, बाधासहित है, विच्छिन्न है,