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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
सुख नहीं है ।
अथ पुण्यस्य दुःखबीजविजयमाघोषयति
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ते पुण उदिण्णता दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि ।
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इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ।। ७५ ।।
इन गाथाओं और उनकी टीका में गंदे खून पीनेवाली जोंक का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि पंचेन्द्रियों को निरन्तर भोगनेवाले इन्द्र और चक्रवर्ती भी दुखी ही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि इस जगत में पुण्य की सत्ता है; किन्तु पुण्यवाले भी सुखी नहीं हैं। वस्तुत: बात यह है कि सच्चा सुख तो आत्मा में ही है और आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त होता है। आत्मा का आश्रयरूप धर्म शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोगरूप है; शुभभावरूप नहीं ।
शुभभाव पुण्यबंध का कारण है और पुण्योदय से पंचेन्द्रियों के विषयों की उपलब्धि होती है। विषयों का भोग, दुखरूप होने से सुखी से दिखनेवाले भोगीजन वस्तुतः दुखी ही हैं। यह बात ही इन गाथाओं में स्पष्ट की गई है।
जिनके पाप का उदय है; वे दुखी हैं - यह तो सारा जगत कहता है; किन्तु यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि जिनके पुण्य का उदय विद्यमान है; वे भी सुखी नहीं हैं, दुखी ही हैं; क्योंकि वे भी विषयों में रमे हैं। दुख के बिना विषयों में रमणता संभव नहीं है ।।७३-७४।
विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि यद्यपि पुण्यभाव विद्यमान हैं; तथापि वे तृष्णा के ही उत्पादक हैं। हम स्पष्ट अनुभव करते हैं कि कभी-कभी तो हमें बहुत प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती और कभी-कभी अत्यल्प प्रयत्न से या बिना प्रयत्न के ही सफलता प्राप्त हो जाती है; इसकारण यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि जगत में पुण्यतत्त्व की भी सत्ता है; क्योंकि अनायास सफलता मिलने का कारण पुण्योदय ही है ।
इसीप्रकार यह बात भी अत्यन्त स्पष्ट है कि पुण्योदय से प्राप्त होनेवाली भोगसामग्री को देखकर या प्राप्त कर विषय-वासना ही उत्पन्न होती है; भोग के भाव ही भड़कते हैं।
अत: अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि पुण्य में दुःखों के बीज की विजय है। तात्पर्य यह है कि पुण्य में तृष्णारूपी बीज दुःखरूप वृक्ष की वृद्धि को प्राप्त होता है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
अरे जिनकी उदित तृष्णा दुःख से संतप्त वे।