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प्रवचनसार
दयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्टशोणित इव जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्यते। अवलोक्यते च सा। ततोऽस्तु पुण्यानां तृष्णायतनत्वमबाधितमेव ।।७४ ।। यह भी स्वीकार करना होगा; क्योंकि जिसप्रकार तृष्णा के बिना जोंक को दूषित रक्त में प्रवृत्ति करते नहीं देखा जाता; उसीप्रकार तृष्णा के बिना समस्त संसारियों को विषयों में प्रवृत्ति करते दिखाई नहीं देना चाहिए; किन्तु संसारियों की विषयों में प्रवृत्ति तो दिखाई देती है। इसलिए पुण्यों की तृष्णायतनता अबाधित ही है। तात्पर्य यह है कि पुण्य तृष्णा के घर हैं - यह बात सहज ही सिद्ध होती है।"
आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही आचार्य जयसेन भी इन गाथाओं का भाव तात्पर्यवृत्ति टीका में जोंक के उदाहरण से ही स्पष्ट करते हैं। वे लिखते हैं कि यदिजोंक को अति आसक्ति नहीं होती, अति तृष्णा नहीं होती तो वह मौत की कीमत पर भी रोगी का गंदा खून क्यों पीती? उसीप्रकार देवों को भी यदि अति आसक्ति नहीं होती, अति तृष्णा नहीं होती तो वे मृत्युपर्यन्त मलिन भोगों को क्यों भोगते रहते ?
जिसप्रकार जोंक गंदे खून को पीने के लिए चिपट जाती है, यदि उसे छुड़ाने की कोशिश करो तो भी वह मरने तक छूटती नहीं है। संसी (संडासी) से पकड़कर उसे खींचना चाहो तो भी हम उसे जिन्दा नहीं निकाल सकते। जब वह पूरा खून पी लेगी और उसका पेट भर जाएगा; तभी वह उसे छोड़ेगी, हम उसे बीच में से नहीं हटा सकते। __मरणपर्यन्त से आशय मरते दमतक नहीं है; अपितु मौत की कीमत पर - ऐसा है। स्वयं का मरण न भी हो तो भोग के भाव का तो मरण होता ही है।
जैसे खाना खा रहे हो और पेट भर जाये, फिर भी लड्डु खाना नहीं छोड़ते । मरणपर्यन्त से तात्पर्य यह है कि जीवन के अन्तिम समय तक पंचेन्द्रिय के विषयों को भोगना चाहते हैं; लेकिन रोजाना मरणपर्यन्त अर्थात् जबतक वह भाव जीवित है, पेट नहीं भर गया है, अब और अंदर जाता नहीं; तबतक यह खाता रहता है।
एक ऐसे व्यक्ति को मैंने देखा है जो बाजार में चाट वगैरह खाता था। जब उसका पेट भर जाता तो वह मुँह में ऊँगलियाँ डालकर वोमेटिंग (उल्टी) करता था और फिर चाट, कचौड़ी, पकौड़ी खा लेता था। ___ पचास बीमारियाँ है, डायबिटीज है; फिर भी इसे मिश्री-मावा चाहिए। यह कहता है कि- 'देख लूँगा, ज्यादा होगा तो दो इन्जेक्शन और लगवा लूँगा।' इसप्रकार प्राणी मरणपर्यन्त अर्थात् मृत्यु की कीमत पर भी इन विषयों को भोगते हैं। वास्तव में यह दुःख ही है,