________________
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
१२३
कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकैः भोगैः । देहादीनां वृद्धिं कुर्वन्ति सुखिता इवाभिरता ।। ७३ ।। यदि सन्ति हि पुण्यानि च परिणामसमुद्भवानि विविधानि । जनयन्ति विषयतृष्णां जीवानां देवतान्तानाम् । । ७४ ।। यतो हि शक्राश्चक्रिणश्च स्वेच्छोपगतैर्भोगैः शरीरादीन् पुष्णन्तस्तेषु दृष्टशोणित इव जलौकसोऽत्यन्तमासक्ताः सुखिता इव प्रतिभासन्ते, ततः शुभोपयोगजन्यानि फलवन्त पुण्यान्यवलोक्यन्ते ।। ७३ ।।
यदि नामैवं शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तीन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यत इत्यभ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानप्यवधिं कृत्वा समस्तसंसारिणां विषयतृष्णामवश्यमेव समुत्पादेखकर, उसे खाने की ही इच्छा होगी न। इसीप्रकार पुण्योदय से अनुकूल सेवाभावी सुन्दरतम पत्नी प्राप्त हो गई तो उसे देखकर आपको विषयेषणा के अलावा और क्या होनेवाला है?
यह इच्छा और विषयेषणा आकुलता ही तो है, दुख ही तो है।
निरन्तर सामने रहनेवाली भोगसामग्री विषयेषणा तो पैदा करती ही है; साथ में उसे निरन्तर सामने रखने की भावना रखना और उसके लिए व्यवस्था जुटाना भी तो यही सिद्ध करता है कि हम उसे निरंतर भोगना चाहते हैं । इसप्रकार वह भोग सामग्री न केवल भोगने के भाव का निमित्तकारण है, अपितु भोगने की तीव्र आकांक्षा का परिणाम भी है, प्रतीक भी है और अन्तर की भोगाकांक्षा को उजागर भी करती है।
यही बात यहाँ कही गई है कि यदि इन्द्रादि दुखी नहीं होते तो वे अतिगृद्धतापूर्वक विषयों में निरन्तर क्यों रमते ?
इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“इन्द्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए; जिसप्रकार जोंक दूषित रक्त में अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी जैसी भासित होती है; उसीप्रकार उन भोगों में अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए इंद्र और चक्रवर्ती सुखी जैसे भासित होते हैं; इसलिए शुभोपयोगजन्य पुण्य दिखाई देते हैं । तात्पर्य यह है कि इन्द्रादि को देखकर यह तो प्रतीत होता ही है कि पुण्य का अस्तित्व है ।
इसप्रकार शुभोपयोगपरिणामजन्य अनेकप्रकार के पुण्य विद्यमान हैं; यदि यह स्वीकार किया है तो वे पुण्य देवों तक के समस्त संसारियों को विषय तृष्णा अवश्य उत्पन्न करते हैं