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प्रवचनसार
ही लिखते हैं कि सिद्धों के शरीर के अभाव में भी सुख है - यह बताने के लिए ही शरीर सुख का कारण नहीं है - यह व्यक्त करते हैं।
टीका के अन्त में गाथा के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि संसारी जीवों को जो इन्द्रियसुख है; उसका भी उपादान कारण जीव ही है, शरीर नहीं और सिद्धों के अतीन्द्रियसुख का उपादान तो आत्मा है ही। __ इस पर यदि कोई कहे कि मनुष्य-तिर्यंचों का शरीर अनेक व्याधियों से भरा है; अत: वह सुख का कारण नहीं होगा; किन्तु देवों का शरीर तो वैक्रियक होता है, दिव्य होता है, व्याधियों से रहित होता है; वह तो सुख का कारण होगा ही ?
उसको समझाते हुए कहते हैं कि वह दिव्य शरीर भी सुख का कारण नहीं है। अतीन्द्रिय सुख का कारण तो शरीर है ही नहीं, इन्द्रियसुख-दुख का कारण भी शरीर नहीं, आत्मा का अशुद्ध उपादान ही है। इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अतीन्द्रिय सुख का कारण आत्मा का शुद्धोपादान है और इन्द्रियसुख-दुख का कारण आत्मा का अशुद्धोपादान है।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि शरीरादि संयोग न तो सुख के कारण हैं और न दु:ख के कारण हैं; क्योंकि वे तो अपने आत्मा के लिए परद्रव्य हैं। परद्रव्य न तो हमें सुख ही देता है और न दुख देता है। हमारे सुख-दुख के कारण हममें ही विद्यमान हैं। ___ हम अपनी पर्यायस्वभावगत योग्यता के कारण ही जब पर-पदार्थों में अपनापन करते हैं, उनके लक्ष्य से राग-द्वेष करते हैं, उन्हें सुख-दुख का कारण मानते हैं तो स्वयं सुखी-दुखी होते हैं।
आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला अतीन्द्रियसुख तो शरीरादि संयोगों के कारण होता ही नहीं है; किन्तु लौकिक सुख-दुख - इन्द्रियजन्य सुख-दुख भी देहादि संयोगों के कारण नहीं होते। तात्पर्य यह है कि देह की क्रिया से न धर्म होता है, न पुण्य और न पाप। ये सभी भाव आत्मा से ही होते हैं।।६५-६६॥
विगत गाथाओं में जोर देकर यह कहते आ रहे हैं कि शरीरधारी प्राणियों को सुख-दुःख का कारण शरीर नहीं है; अपितु उनका आत्मा ही स्वयं अपनी उपादानगत योग्यता से अथवा अपने अशुद्ध-उपादान से स्वयं सांसारिक सुख-दुखरूप परिणमित होता है।
अब आगामी गाथाओं में यह कह रहे हैं कि न केवल देह ही, अपितु पाँच इन्द्रियों के