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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार
अथात्मन: स्वयमेव सुखपरिणामशक्तियोगित्वाद्विषयाणामकिंचित्करत्वं द्योतयति । अथात्मनः सुखस्वभावत्वं दृष्टान्तेन दृढयति -
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ।।६७ ।। सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ।।६८ ।।
तिमिरहरा यदि दृष्टिर्जनस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । तथा सौख्यं स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुर्वन्ति ।।६७ ।। स्वयमेव यथादित्यस्तेजः उष्णश्च देवता नभसि ।
सिद्धोऽपि तथा ज्ञानं सुखं च लोके तथा देवः।।६८ ।। विषय भी संसारी जीवों को सुख-दुख में कारण नहीं है। वस्तुतः बात यह है कि संसारी जीव अपनी अशुद्धोपादानगत योग्यता के कारण सुखी-दु:खी हैं और सिद्ध भगवान अपनी शुद्धोपादानगत योग्यता के कारण अनंतसुखी हैं।
इन गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि आत्मास्वयं सुखपरिणाम की शक्ति से सम्पन्न है; अत: उसे पंचेन्द्रियों के विषय अकिंचित्कर हैं। आत्मा का सुख परिणामत्व दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) तिमिरहर हो दृष्टि जिसकी उसे दीपक क्या करे। जब जियस्वयंसुखरूपहोइन्द्रिय विषय तब क्या करें||६७|| जिसतरह आकाश में रवि उष्ण तेजरु देव है।
बस उसतरह ही सिद्धगण सब ज्ञान सुख अर देव हैं।।६८|| यदि किसी की दृष्टि अन्धकारनाशक हो तो उसे दीपक की आवश्यकता नहीं है; उसीप्रकार जब आत्मा स्वयं सुखरूप परिणमित होता है, तब विषय क्या कर सकते हैं, विषयों का क्या काम है?
जिसप्रकार आकाश में सूर्य स्वयं से ही तेज, उष्ण और देव है; उसीप्रकार लोक में सिद्ध भगवान भी स्वयं सेहीज्ञान. सख और देव हैं।