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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार
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अस्य खल्वात्मन: सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदपि पीतोन्मत्तकरसैरिव प्रकृष्टमोहवशवर्तिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषयानभिपतद्भिसमीचीनवृत्तितामनुभवन्नुपरुद्धशक्तिसारेणापि ज्ञानदर्शनवीर्यात्मकेन निश्चयकारणतामुपागतेन स्वभावेन परिणममानः स्वयमेवायमात्मा सुखतामापद्यते । शरीरं त्वचेतनत्वादेव सुखत्वपरिणतेर्निश्चयकारणतामनुपगच्छन्न जातु सुखतामुपढौकत इति ।।६५ ।।
अयमत्र सिद्धांतो यदिव्यवैक्रियिकत्वेऽपि शरीरं न खलु कल्प्यतेतीष्टानामनिष्टानां वा विषयाणांवशेन सुखं वा दुःखं वा स्वयमेवात्मा स्यात् ।।६६ ।।
स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं, ऐसे इष्ट विषयों को पाकर अपने स्वभाव से ही परिणमन करता हुआआत्मा स्वयं हीइन्द्रियसुखरूप होता है, देह सुखरूप नहीं होती।
यह बात सुनिश्चित ही है कि स्वर्ग में भी शरीर शरीरी (शरीरधारी जीव) को सुख नहीं देता; परन्तु आत्मा विषयों के वश में सुखरूप अथवा दुखरूप स्वयं ही होता है।
उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“वस्तुतः इस आत्मा को सशरीर अवस्था में भी शरीर सुख का साधन हो - ऐसा हमें दिखाई नहीं देता; क्योंकि तब भी, मानो उन्मादजनक मदिरा का पान किया हो ऐसी, प्रबल मोह के वश वर्तनेवाली, 'यह विषय हमें इष्ट है' - इसप्रकार विषयों की ओर दौड़ती हुई इन्द्रियों के द्वारा असमीचीन परिणति का अनुभव करने से, जिसकी शक्ति की उत्कृष्टता (परमशुद्धता) रुक गई है - ऐसे निश्चयकारणरूप अपने ज्ञान-दर्शन-वीर्यात्मक स्वभाव में परिणमन करता हुआ यह आत्मा स्वयमेव सुखी होता है। शरीर तो अचेतन होने से सुख का निश्चयकारण नहीं है; इसलिए वह सुखरूपनहीं होता।
यहाँ यह सिद्धान्त है कि शरीर दिव्य वैक्रियक ही क्यों न हो; तथापि वह सुख नहीं दे सकता; अत: यह आत्मा इष्ट अथवा अनिष्ट विषयों के वश होकर स्वयं ही सुख अथवा दुखरूप होता है।"
यदि शरीर सुख का कारण होता तो सिद्ध भगवान सुखी नहीं होते; क्योंकि उनके शरीर नहीं है। शरीर न होने पर भी सिद्ध भगवान सुखी हैं; इससे सिद्ध होता है कि शरीर सुख का कारण नहीं है।
आचार्य जयसेन तो तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में ६५वीं गाथा की टीका की उत्थानिका में