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प्रवचनसार
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अथ मुक्तात्मसुखप्रसिद्धये शरीरस्य सुखसाधनतां प्रतिहन्ति । अथैतदेव दृढयति - पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो । । ६५ ।। एते हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा । विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा । ६६ ।।
प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्शैः समाश्रितान् स्वभावेन ।
परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः । । ६५ ।। एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा । विषयवशेन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा । । ६६ ।।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार मात्र इतना ही है कि बड़े-बड़े पुण्यवान मनुष्यों में चक्रवर्ती और देवों में देवेन्द्र और असुरों में असुरेन्द्र सभी दुखी हैं, सुखी कोई भी नहीं । वस्तुत: बात यह है कि संसार में सुख है ही नहीं। जिसे संसार में सुख कहा जाता है; वह सुख नहीं, दुख ही है और जिसे हम सुखसामग्री कहते हैं; वह सुखसामग्री नहीं, भोगसामग्री ही है, दुखसामग्री ही है।
यदि चक्रवर्ती आदि दुखी नहीं होते तो विषय भोगों में क्यों उलझते, क्यों रमते ? अतः यह सुनिश्चित ही है कि परोक्षज्ञानी सुखी नहीं हैं; सुखी तो प्रत्यक्षज्ञानी केवलज्ञानी ही हैं । ६३-६४ ॥
विगत गाथाओं में यह समझाया है कि परोक्षज्ञानियों को सच्चा सुख प्राप्त नहीं है; वस्तुतः वे दुखी ही हैं; यही कारण है कि वे रम्य इन्द्रिय विषयों में रमते हैं।
अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि पंचेन्द्रियों के समुदायरूप शरीर संसारियों को भी सुख का कारण नहीं है; क्योंकि यह जीव अपनी पर्यायगत योग्यता के कारण सुखदुखरूप स्वयं ही परिणमित होता है । इन गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि सिद्धजीव ही सुखी है - यह समझाने के लिए दृढ़तापूर्वक यह कहते हैं कि शरीर सुख का साधन नहीं है । गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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( हरिगीत )
इन्द्रिय विषय को प्राप्त कर यह जीव स्वयं स्वभाव से । सुखरूप हो पर देह तो सुखरूप होती ही नहीं ॥ ६५ ॥ स्वर्ग में भी नियम से यह देह देही जीव को । सुख नहीं दे यह जीव ही बस स्वयं सुख-दुखरूप हो ||६६ ॥