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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार
इह खलु स्वभावप्रतिघातादाकुलत्वाच्च मोहनीयादिकर्मजालशालिनां सुखभासेऽप्यपारमार्थिकी सुखमिति रूढिः । केवलिनांतुभगवतां प्रक्षीणघातिकर्मणांस्वभावप्रतिघाताभावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लक्षणस्य च सद्भावात्पारमार्थिकं सुखमिति श्रद्धेयम् ।
न किलैवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुखसुधापानदूरवर्तिनो मृगतृष्णाम्भोभारमेवाभव्याः पश्यन्ति । ये पुनरिदमिदानीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवधियोभाजनं समासन्नभव्याः भवन्ति । ये तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दूरभव्या इति ।।६२।।
केवलज्ञान की अवस्था में सुखप्राप्ति के विरोधी दुखों के साधनभूत अज्ञान का सम्पूर्णतया नाश और सुख के साधनभूत पूर्णज्ञान का उत्पादइस बात को प्रमाणित करते हैं कि केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है। अधिक विस्तार से क्या लाभ है ?
इस लोक में मोहनीय आदिकर्मजालवालों के स्वभाव प्रतिघात के कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभास को सुख कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है। जिनके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं; उन केवली भगवान के स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के वास्तविक कारण और लक्षण का सद्भाव होने से पारमार्थिक सुख है - ऐसी श्रद्धा करनेयोग्य है।
जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है; वे मोक्षसुख से दूर रहनेवाले अभव्य मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते हैं; अनुभव करते हैं और जो उक्त वचनों को तत्काल स्वीकार करते हैं; वे मोक्षलक्ष्मी के पात्र आसन्नभव्य हैं और जो आगे जाकर दूर भविष्य में स्वीकार करेंगे, वे दूरभव्य हैं।"
आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रवचनसार की सरोज भास्कर टीका में ६१वीं गाथा की टीका करते हुए लिखा है कि अन्तराय और मोहनीय अनिष्ट हैं और अनंतवीर्य और अनंतसुख इष्ट हैं।
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में ६१वीं गाथा का अर्थ तो तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; किन्तु उन्हें ६२वीं गाथा की टीका के अर्थ में कुछ विशेष स्पष्टीकरण अभीष्ट है; क्योंकि यह कैसे संभव है कि जो लोग अभी उक्त कथन पर श्रद्धा नहीं करते, वे भविष्य में भी श्रद्धा नहीं करेंगे। अत: अभी श्रद्धा न करनेवालों को मिथ्यादृष्टि तो कहा जा सकता है, पर अभव्य कहना संभव नहीं है।
वस्तुत: स्थिति यह है कि जो अभी श्रद्धा नहीं करते, वे मिथ्यादृष्टि हैं और जो न तो अभी श्रद्धा करते हैं और न कभी भी श्रद्धा करेंगे, वे अभव्य हैं।