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प्रवचनसार
गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका का भी यही भाव है और उसी का विशेष स्पष्टीकरण आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इसप्रकार करते हैं -
"वे जीव वर्तमान समय में सम्यक्त्वरूपी भव्यत्व की प्रगटता का अभाव होने से अभव्य कहे जाते हैं; वे सर्वथा अभव्य नहीं हैं ।
जो जीव वर्तमान काल में सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रगटतारूप से परिणमित हैं; वे भव्य उस अनन्तसुख की अभी श्रद्धा करते हैं और जो जीव सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रकटतारूप से भविष्य में परिणमित होंगे; वे दूरभव्य आगे श्रद्धान करेंगे ।
जिसप्रकार कोतवाल द्वारा जान से मारने के लिए पकड़े गये चोर को मरण अच्छा नहीं लगता; उसीप्रकार सराग सम्यग्दृष्टि को इन्द्रियसुख इष्ट नहीं है; तथापि कोतवालरूपी चारित्र मोहनीय के उदय से मोहित होता हुआ आत्मनिन्दा आदिरूप से परिणत वह सराग सम्यग्दृष्टि राग रहित अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख को प्राप्त नहीं करता हुआ हेयरूप से उक्त परिणति का अनुभव करता है और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि शुद्धोपयोगी हैं, उनको मछलियों का भूमि पर आने के समान अथवा अग्निप्रवेश के समान निर्विकार शुद्धात्मसुख से च्युत होना भी दुख प्रतीत होता है ।
कहा भी है कि जिसप्रकार मछलियों को जब भूमि ही जलाती है, तो फिर अंगारों की बात ही क्या करना; वे तो जलावेंगे ही; उसीप्रकार समतासुख का अनुभव करनेवाले मनुष्य को समता से च्युत होना ही अच्छा नहीं लगता है तो फिर पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की तो बात ही क्या है; वे उनमें कैसे रम सकते हैं ?"
६१वीं गाथा में मात्र यह कहा गया है कि केवलज्ञानी के सर्व अनिष्ट नष्ट हो गये हैं और लोकालोक को देखने-जानने की सामर्थ्य प्रगट हो चुकी है; इसकारण वे पूर्णसुखी, अनन्तसुखी हैं। और ६२वीं गाथा का भाव यह है कि उक्त अनंतसुखी केवलज्ञानी की श्रद्धा अभव्यों को नहीं होती, नहीं हो सकती तथा दूरभव्यों को भी इसकी श्रद्धा कम से कम अभी होना तो संभव नहीं है; किन्तु जो निकटभव्य हैं; उन्हें सर्वज्ञ भगवान की श्रद्धा अभी तत्काल या अल्पकाल में ही होगी। तात्पर्य यह है कि जिन्हें सर्वज्ञ भगवान की श्रद्धा है; वे तो निकटभव्य हैं ही ।। ६१-६२ ।।
अबतक यह बताते आ रहे हैं कि केवलज्ञानी के स्वाभाविक सुख है, अतीन्द्रिय आनन्द है; वे अनंतसुखी हैं और अब आगामी गाथाओं में यह बता रहे हैं कि परोक्षज्ञानियों के अपारमार्थिक इन्द्रिय सुख होता है और जबतक इन्द्रियाँ हैं, तबतक जीव स्वभावत: ही दुःखी है ।