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ज्ञानमर्थान्तगतं लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टि: । नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनर्यत्तु तल्लब्धम् ।।६९। न श्रद्दधति सौख्यं सुखेषु परममिति विगतघातिनाम् । श्रुत्वा ते अभव्या भव्या वा तत्प्रतीच्छन्ति ।। ६२ ।।
स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यम् । आत्मनो हि दृशिज्ञप्ती स्वभाव: तयोर्लोकालोकविस्तृतत्वेनार्थान्तगतत्वेन च स्वच्छन्दविजृम्भितत्वाद्भवति प्रतिघाताभावः । ततस्तद्धेतुकं सौख्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम् ।
किंच केवलं सौख्यमेव; सर्वानिष्टप्रहाणात्, सर्वेष्टोपलम्भाच्च ।
यतो हि केवलावस्थायां सुखप्रतिपत्तिविपक्षभूतस्य दुःखस्य साधनतामुपगतमज्ञानमखिलमेव प्रणश्यति, सुखस्य साधनीभूतं तु परिपूर्णं ज्ञानमुपजायेत, ततः केवलमेव सौख्यमित्यलं प्रपञ्चेन ।। ६१॥
गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
प्रवचनसार
( हरिगीत )
अर्थात है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है ।
नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं || ६१ ॥
घातियों से रहित सुख ही परमसुख यह श्रवण कर । भी न करें श्रद्धा अभवि भवि भाव से श्रद्धा करें ॥ ६२ ॥
केवलज्ञानी का ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है, दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो चुके हैं और जो इष्ट हैं, वे सब प्राप्त हो गये हैं; इसकारण केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है। जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं; उनका सुख परमोत्कृष्ट है - ऐसा वचन सुनकर भी अभव्य श्रद्धा नहीं करते और भव्य उक्त बात को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करते हैं ।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"स्वभाव प्रतिघात का अभाव ही सुख का कारण है। आत्मा का स्वभाव दर्शन - ज्ञान है । केवलज्ञानी के उनके प्रतिघात का अभाव है; क्योंकि दर्शन लोकालोक में विस्तृत होने से और ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त होने से दर्शन - ज्ञान स्वच्छन्दतापूर्वक विकसित हैं । इसप्रकार स्वभाव के प्रतिघात के अभाव के कारण सुख अभेद विवक्षा से केवलज्ञान का स्वरूप है ।
दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान सुख ही है; क्योंकि सर्व अनिष्टों का नाश हो गया है और सम्पूर्ण इष्ट की प्राप्ति हो चुकी है ।