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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार
___ अथ पुनरपि केवलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरति । अथ केवलिनामेव पारमार्थिकसुखमिति श्रद्धापयति -
णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णट्ठमणिटुं सव्वं इ8 पुण जं तु तं लद्धं ।।६१।। णो सद्दहति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं।
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ।।६२।। निरंतर सबको जानने का काम करनेवाला केवलज्ञानी निराकुल कैसे हो सकता है ? इतना काम करनेवाले को थकान भी तो हो सकती है।
केवलज्ञान का स्वरूप न समझनेवाले और मतिश्रुतज्ञान के समान ही केवलज्ञान को माननेवालों के चित्त में उक्तप्रकार की आशंकायें सहज ही उत्पन्न हो सकती हैं।
उक्त आशंकाओं का निराकरण करते हुए इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि - मात्र परिणमन थकावट या दुख का कारण नहीं है; किन्तु घातिकर्मों के निमित्त से होनेवाला परोन्मुखपरिणमन - ज्ञेयार्थपरिणमन थकावट या दुख का कारण है। घातिकर्मों का अभाव होने से केवलज्ञानी को थकावट या दुख नहीं है। अनंतशक्ति के धारक केवलज्ञानी को थकावट का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता।
परिणमन केवलज्ञान का स्वभाव है, स्वरूप है; विकार नहीं, उपाधि नहीं। परिणमनस्वभाव का अभाव होने पर तो केवलज्ञान की सत्ता ही संभव नहीं है। इसप्रकार परिणाम (परिणमन) केवलज्ञान का सहजस्वरूप होने से उसे परिणाम के द्वारा खेद नहीं हो सकता।
त्रैकालिक लोकालोक को, समस्त ज्ञेयसमूह को सदा अडोलरूप से जानता हुआ अत्यन्त निष्कंप केवलज्ञान पूर्णत: अनाकुल होने से अनंतसुखस्वरूप है। इसप्रकार केवलज्ञान और अनाकुलता भिन्न-भिन्न न होने से केवलज्ञान और सुख अभिन्न ही हैं।
इसप्रकार घातिकर्मों के अभाव के कारण, परिणाम उपाधि न होने के कारण और अनन्तशक्ति सम्पन्न निष्कंप होने के कारण केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है।।६०।।
विगत गाथाओं में यह कहते आ रहे हैं कि अतीन्द्रियज्ञान अर्थात् केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है, अतीन्द्रियसुखस्वरूप ही है; अब इन गाथाओं में उसी बात का उपसंहार करते हुए उसकी श्रद्धा करने की प्रेरणा देते हैं।