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________________ १२ पश्चात्ताप वे मन में सीता को छोड़े जाने के मूल कारण धोबिन के कथन को भी सही ठहराते हैं; 'उसने तो अपनी सफाई में सीता का मात्र उदाहरण ही तो दिया था, आक्षेप तो नहीं लगाया था' : धोबिन ने अपनी रक्षा में सीता की दी थी बस नजीर । कविता में जहाँ भगवान राम का मानवीय रूप मुखरित हुआ है, वहीं सीता की पवित्र परमोज्ज्वल छवि भी स्पष्टतः उभरी है। राम का पश्चात्ताप ● और सीता की मौन और किंचित् मुखर पीड़ा पाठक को झकझोरती है। बस, यहीं कवि का मूल मन्तव्य पूरा होता है। कवि ने एक नितान्त संवेदनशील बिन्दु की ओर इशारा करते हुए उसे वाणी दी है। पूरी कविता पढ़ने पर पाठक अनेक भावनाओं से अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। यही इसकी मजबूती है, सफलता है; और यह कविता श्री (अब डॉक्टर) भारिल्लजी ने सत्रह साल की अवस्था में लिखी थी, (अपनी बात ) इसलिए; उनकी 'कूक' पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि 'चूक' पर । यदि तब से वे अपनी काव्य-रचना - परम्परा चालू रखते, तो निस्संदेह आज काव्य-क्षेत्र में उनका नाम अत्यन्त जाना-पहचाना होता । इस कविता में उनके आज के जैन तत्त्व-मीमांसक के तार्किक स्वरूप की झलक भी देखी जा सकती है। धोबी धोबिन, सामाजिक व्यवस्था, लोकमत इत्यादि के विषय में उनके तर्क-वितर्क और निर्णय के संकेत इसकी पुष्टि करते हैं। जैन काव्यों के कथानकों की कई रूढ़ियाँ है, जिनमें तीन का उल्लेख और प्रभाव तो बहुधा देखने को मिलता है : (१) पूर्व भव - ज्ञान और कथन, (२) धर्म-प्रेरणा और (३) अन्ततः जिन - दीक्षा में परिणति । इस कविता में भी न्यूनाधिक रूप में इन तीनों का संकेत उल्लेख है । कविता का समापन भी सीता के जिन दीक्षा-संकल्प के साथ होता है। ऐसी प्रभावी और सरल बोलचाल की भाषा में लिखित कविता के लिए डॉ. भारिल्ल बधाई के पात्र हैं। मैं डॉ. भारिल्ल के कर्मठ, सुखीस्वस्थ, दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ । - हीरालाल माहेश्वरी २८-०२-०७, १. नजीर - फारसी, स्त्रीलिंग शब्द है । २. अच्छाई, कथन का सार, भावना, ध्वनि । पश्चात्ताप पश्चात्ताप ( शृंगार छन्द ) ( १ ) प्रथम धर अरहंतों का ध्यान, और कर जिनवाणी गुणगान । सदाचरणों में नित अम्लान, किया जिन-जिन ने जीवनदान' ।। (२) नमन कर उन गुरुओं को आज, राम के मन की गहरी छाप । राम के अन्तर का आताप, राम के मन का पश्चात्ताप ।। (३) राम के मन का पश्चात्ताप, सती सीता का यह अनुताप । कहूँ कैसे किन शब्दों में, प्रजा के मन का यह संताप ।। ( ४ ) समाई सीता रग-रग में, बस रहे रग-रग में श्री राम । करूँ मैं वन्दन अभिनन्दन, रमूँ नित अपने आतम राम ।। २. जीवन लगा दिया १. रत्नत्रय या सदाचार में १३
SR No.008366
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size175 KB
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