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पश्चात्ताप
यदि उक्त बात के आधार पर सगर्भा सीता को वनवास दिया गया तो फिर राम को क्यों नहीं ? उन्होंने भी तो कुछ दिन को ही सही, पर परघर में रही सीता को अपने घर में रख ही लिया था और | उसी समय सीताजी गर्भवती भी हुईं थीं। यदि परघर रही हुई स्त्री को घर में रखना अपराध है तो फिर राम से यह अपराध हो ही गया था । पर बात यह है कि राम तो दण्ड देने वाले थे, राजा थे, समर्थ थे और समरथ को नहीं दोष गुसाईं । जो भी हो..... । गंभीरता से सोचने की बात यह है कि सीता के निर्जन वनवास से जनता में क्या सन्देश गया? यही न कि ऐसी महिलाओं को भयंकर वन में छुड़वा दिया जाना चाहिये ।
यद्यपि जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति एक ही होता है; तथापि उसके लम्बे जीवन में बचपन भी होता है, जवानी भी होती है और वृद्धावस्था भी होती ही है। बचपन में अज्ञान से और जवानी में जवानी के जोश से अनेक ऐसे कार्य हो जाते हैं, जिन्हें अच्छा नहीं कहा जा सकता, अच्छा नहीं माना जा सकता ।
जीवन के अन्तिम समय में वे व्यक्ति कितने ही महान क्यों न हो गये हों; पर जनता उन्हें विभक्त करके नहीं देख पाती; उन्हें समग्र रूप में ही देखती है। यही कारण है कि अपने जीवन के आरंभिक काल में हुई जिन गलतियों के लिए वे महापुरुष जीवन भर पछताते रहे; हम अपने अज्ञान से उन गलतियों को भी गुण मानकर, न केवल उनके गीत गाते रहते हैं, अपितु उन्हें अपना आदर्श मानकर जीवन में उतारने की कोशिश भी करते हैं; उन्हीं गलतियों को अपने जीवन में भी दुहराने का प्रयत्न करते हैं।
सीताजी की अग्निपरीक्षा ने मात्र सीता के सतीत्व को ही नहीं,
अपनी बात
उनके साथ हुये अन्याय को भी उजागर किया था, प्रमाणित किया था ।
यद्यपि सामान्यजनों का ध्यान इस ओर नहीं जाता है; पर श्रीराम सामान्यजन तो थे नहीं। वे तो इसे गहराई से अनुभव कर रहे थे। श्रीराम के इस अनुभव का नाम ही है- पश्चात्ताप काव्य ।
श्री राम द्वारा सीताजी को दिये गये बनवास और उसके बाद हुई अग्नि परीक्षा के उपरान्त उत्पन्न स्थिति में राजा राम के हृदय में जो विचार आते हैं, जो पश्चात्ताप होता है, उन विचारों को ही अभिव्यक्ति दी गई है इस पश्चात्ताप नामक काव्य में ।
उक्त मंथन में कुछ प्रकाश आज की समस्याओं पर भी सहज ही पड़ गया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यह काव्य मैंने १७ वर्ष की उम्र में लिखा था; जो आज ७१ वर्ष की उम्र में छप रहा है। एक-दो वर्ष पड़े रहने के बाद, मैंने अपने हाथ से इसकी एक प्रेस कापी तैयार की थी, जिस पर १२ दिसम्बर १९५४ ई. की तारीख डली है।
मेरे साहित्य पर शोध-कार्य करते हुये डॉ. महावीर प्रसाद जैन को वह कापी प्राप्त हो गई। उन्होंने अपने शोध प्रबंध में उसके सन्दर्भ में चर्चा की, समीक्षा भी की। उसके बाद से ही इसके प्रकाशन की माँग जोर पकड़ने लगी; पर हमारे अभिन्न साथी ब्र. यशपालजी यह चाहते थे कि मैं उसे एक बार देख लूँ, जिससे ऐसी कोई बात न चली जाय जो सिद्धान्तविरुद्ध हो या किसी मनोमालिन्य का कारण बन जाये। इसी उधेड़बुन में यह कृति अबतक यों ही पड़ी रही, न मुझे समय मिला और न यह प्रकाशित हो सकी।
अब इसके प्रकाशन का समय आया है। मैंने इसे आद्योपान्त