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पश्चात्ताप
कवि ने राम के मुख से कहलवाया है कि - जंगल में उसकी रक्षा का, उत्तरदायित्व हमारा
इसमें उसका था क्या कसूर?
उसने तो हमें पुकारा था ।। ४७ ।। एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि सीता अपराधी थी अर्थात् अपवित्र थी; परन्तु क्या किसी भी न्यायालय में, यदि वह न्यायालय तानाशाही व्यवस्था का हिस्सा नहीं है, अपराधी को अपनी सफाई का •अवसर दिए बिना उसकी सजा तय की जा सकती है? और फिर राम तो आदर्श राज्य के संस्थापक थे; उनके यहाँ यह अनीति कैसे हुई ? कम से कम एक बार सीता से पूछ तो लेना चाहिए था, लेकिन राम ने ऐसा नहीं किया।
था ।
अब सवाल यह भी है कि ऐसा राम ने क्यों नहीं किया?
इसका कुछ उत्तर डॉ. शुद्धात्मप्रभा टडैया ने देने की कोशिश की है। उन्होंने 'रामकथा' में लिखा है -
"राम आज बहुत उद्विग्न थे, नींद उनकी आँखों से कोसों दूर भाग गई थी, अनगिनत विचारों में उनका मनपंछी तीव्रगति से विचरण कर रहा था । वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ से कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, क्या न करें।"
राम पशोपेश में इसलिए हैं कि आज तक सीता ने कष्ट ही कष्ट सहन किए हैं और अब जब सुख पाने का अवसर आया है, तो मैं उसे त्याग रहा हूँ। यही कारण था कि उनमें सीता से आँख मिलाने की या सामना करने की क्षमता ही नहीं थी कि वे सीता को बुलाते और कारण बताकर त्यागने के निर्णय की सूचना देते ।
दूसरा एक कारण यह भी था जिसकी ओर कवि ने भी इशारा किया है कि प्रजा के द्वारा सीता की पवित्रता पर शंका करने के बाद राम के मन की भी वह अन्तर्ग्रन्थि खुल गई, जिसमें सीता की अपवित्रता की आशंका
एक समीक्षात्मक अध्ययन
के बीज विद्यमान थे, अन्यथा कोई अपकीर्ति के भय से प्रयास से प्राप्त
पत्नी को थोड़े ही छोड़ देता है। कवि ने लिखा है - सीता सतीत्व में शंका थी,
तो क्यों उसको मैं घर लाया ? सीता यदि परम पुनीता थी,
तो क्यों जनमत से घबराया ? ।।५४ ।। स्पष्ट है कि जनमत तो बहाना था, राम जनमत के बहाने सीता को अपनी शंका के परवान चढ़ा रहे थे ।
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उपर्युक्त विवेचन से जाहिर है कि कवि राम और सीता के पौराणिक आख्यान के माध्यम से नारी जीवन की त्रासदी को व्यक्त कर रहे हैं। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लेखक नारी जीवन की त्रासदी को व्यक्त कर रुक नहीं जाता है, बल्कि उस त्रासदी के प्रतिकार स्वरूप पुरुष को भी नारी के समक्ष निरीह बना देता है।
सत्य तो यह है कि नारी की त्रासदी काव्य का पूर्व पक्ष है और नारी के प्रतिकार के सामने पुरुष की निरीहता उत्तरपक्ष है।
पुरुष तब और अधिक निरीह प्रतीत होता है जब नारी के द्वारा उसके अहं पर चोट पड़ती है। जो स्वयं को दाता मानता है, वह याचक की स्थिति में आ जाए; जो स्वयं को विधाता मानकर जिसका परित्याग कर दे, उसी के समक्ष स्वयं परित्यक्त हो जाए; जिस निर्ममता का व्यवहार वह नारी के साथ करे, ठीक वैसा ही व्यवहार नारी से प्राप्त हो, तभी अहं विच्छिन्न होता है और वह परिताप करने की स्थिति में आ जाता है और उसका नारी-भाग्य-विधाता होने का भ्रम टूटता है।
तभी वह अहसास होता है, जो राम को हुआ - नारी कोमल को कोमल है,
पर निष्ठुर को निष्ठुर महान । नर के अनुरूप रही नारी,
जाना मैंने नारी विधान ||८० ॥