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पश्चात्ताप
एक समीक्षात्मक अध्ययन
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कवि द्वारा उपर्युक्त रूपक का आद्यन्त निर्वाह किया गया है।
(४) 'पश्चात्ताप' : दर्शन और अध्यात्म -
पश्चात्ताप काव्य का अध्यात्म ही प्रस्थान बिन्दु है और अध्यात्म ही परिणति । चूँकि कवि के पूरे जीवन का निचोड़ अध्यात्म के इर्द-गिर्द ही बहा है; अतः रचना का अध्यात्ममय होना आश्चर्य पैदा नहीं करता; बल्कि रचना के गाम्भीर्य को आद्यन्त बनाए रखता है। मानवीय जन्ममृत्यु चक्र उसके हाथ में नहीं है; किन्त प्रत्येक जन्म को, उसके प्रत्येक क्षण को अध्यात्म के आलोक में अमर बनाया जा सकता है। काव्य का मंगलाचरण ही अध्यात्म भावना से परिपूर्ण है - समाई सीता रग-रग में,
बस रहे रग-रग में श्री राम । करूँ मैं वंदन अभिनन्दन,
रमूं नित अपने आतम राम ।।४।। कवि ने यहाँ जो अपने आत्मा में रमण करने की भावना व्यक्त की है; यही भावना आगे चलकर उपदेशमय शब्दों में अभिव्यक्त होती है। त्यागने से मुझको हे नाथ!,
हुआ होगा थोड़ा आताप । त्याग देने से आत्म धर्म,
मिलेगा भव-भव में संताप ।।२९ ।। अपनी आत्मा के आश्रय से अनेकों जन्मों के संताप नष्ट हो जाते हैं और आत्मस्वभाव को छोड़ देने से अनेकों जन्मों तक संताप को सहन करना पड़ता है। काव्य के अंत में नान्दी पाठ के रूप में कवि ने जो भावना व्यक्त की, वह आध्यात्मिक भावना ही है। अरिहंत राम के परम भक्त,
हम आत्मराम के आराधक। जिनवाणी सीता के सपूत,
भगवान आत्मा के साधक ।।१३० ।।
भगवान आत्मा के साधक,
ध्रुवधाम आतमा के साधक। निज आतम में ही रहें लीन,
है यही भावना भवनाशक ।।१३१ ।। चूँकि कृतिकार अध्यात्मवादी कवि है - अध्यात्म कवि के रग-रग में समाया हुआ है। डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है - __"प्रत्येक महाकवि द्रष्टा तो अनिवार्यतः होता है और दार्शनिक भी प्रायः होता है; किन्तु शास्त्रकार नहीं हो सकता; क्योंकि शास्त्र और काव्य की प्रकृति मूलतः भिन्न है। इसीकारण जहाँ कहीं भी कवि ने शास्त्रनिरूपण का प्रयत्न किया; उसका कवित्व बाधित हो गया।"
डॉ. नगेन्द्र के उपर्युक्त कथन से अंशतः सहमत हुआ जा सकता है; क्योंकि यदि कवि के वर्तमान पर दृष्टि डालें तो वह शास्त्रकार, चिन्तक, प्रवचनकार आदि अनेक भूमिकाओं को लिए है। फिर भी काव्य-रचना निर्बाध है, किन्तु पश्चात्ताप' के रचनाकाल को ध्यान में रखकर देखा जाए तो ऐसी रचना पुनः कवि की लेखनी नहीं उगल सकी, जिसमें कि सही अर्थों में काव्यत्व है।
प्रस्तुत कृति में यद्यपि कवि का उद्देश्य दर्शन या अध्यात्म को काव्य के सांचे में उड़ेलकर प्रस्तुत करना नहीं रहा; ऐसा प्रतीत होता है, फिर भी दर्शन काव्य में स्थान-स्थान पर व्यंजित हो ही गया है। राम के द्वारा सीता से स्वयं को अपराधी मानकर क्षमा माँगने के प्रसंग में सीता के मुख से कुछ सिद्धान्त सहज ही निसृत हो जाते हैं, उदाहरण के लिए जैनदर्शन का कर्म सिद्धान्त का सहज वर्णन करती है - विगत भव में जो बाँधे कर्म, वही फल देते इस भव में ।।२०।।
या 'करे सो भरे' यही है सत्य,
आपका इसमें कोई न दोष ।।२१।।