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________________ पश्चात्ताप पश्चात्ताप (१०९) जब शीलवती सीतादेवी, की अग्नि परीक्षा मैंने ली। तो अब मुझको भी देना है, भारतवासी जन सुन लो जी।। (१०४) छूकर तुमको अपवित्र करूँ, यह होगा मेरा पागलपन । तुम अग्निशिखाओं में तपकर, ___ पा चुकी चिरन्तन उजलापन ।। (१०५) जाओ!जाओ! सीते! जाओ!!, मैं आज तुम्हें ना रोकूँगा। अपनी करनी का पुरस्कार, पाकर मैं उसको भोगूंगा।। (१०६) कैकेई ने वनवास दिया था, धीर-वीर नर को पाकर । उसको दुष्टा निर्दया कहें, जो नररत्नों की रत्नाकर ।। (१०७) जिसने वैरागी भरतराज से, वीर सु-सुन्दर सुत जाये। पर पुत्र प्रेम में अंधी हो, कर विगत धरोहर वर पाये ।। (१०८) मैंने अबला अनुगामिन को, एकाकी जंगल में छोड़ा। कर्कश शब्दों का है अभाव, जो कुछ कह दो मुझको थोड़ा।। सीता का कुण्ड मही में था, मेरा होगा मनमन्दिर में। उसमें था सूखा काष्ठ भरा, मेरा तन ही होगा इसमें ।। (१११) उसमें अग्नि सुलगाई थी, मैंने शोकानल लगा दिया। जब कूदीं कुण्ड में सीताजी, अग्नि ने भी जल बहा दिया ।। (११२) अगनी को अमल सलिल करके, उसने पवित्रता दिखला दी। मैंने शोकाग्नि लगा मन में, आँसू की बूँदें ढुलका दी। (११३) तेरी पवित्रता का सीता, मैंने प्रमाण जब पाया था। अपराध समझ करके अपना, तुमको अपनाना चाहा था ।। १. पृथिवी/पृथ्वी २. जल ३. तात्पर्य यह है कि मैंने भी अग्नि का जल - कर दिया, इसप्रकार मैं भी अग्नि परीक्षा में पास हो गया।
SR No.008366
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size175 KB
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