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________________ बिना ही पुद्गल पिण्ड से किये जाते हैं। तीनों योगों का प्रेरक होकर करानेवाला भी मैं नहीं हूँ, पुद्गलद्रव्य ही उनका कर्ता है; उन योगों के कराने वाले पुद्गल पिण्ड का अनुमोदक भी मैं नहीं हूँ, मेरी अनुमोदना के बिना ही पुद्गल उन योगों का कर्ता है, इसकारण मैं परद्रव्य से अत्यन्त भिन्न हूँ। मेरा इनसे कुछ भी संबंध नहीं है। (ख) भाग का उत्तर कार्य - बेटों का उन्नति के शिखर पर पहुँचना। ध्रुव उपादान कारण - बेटों का आत्मा; क्योंकि उन्नतिरूप कार्य बेटों के आत्मद्रव्य में ही हुआ है, बेटों का आत्मा मात्र स्वभाव का नियामक है; क्योंकि इसके रहते भी सदैव कार्य सम्पन्न होते नहीं देखा जाता। यदि इसे समर्थ कारण मान लिया जाये तो शतत कार्य होने का प्रसंग प्राप्त होगा; क्योंकि समर्थकारण की उपस्थिति में कार्य नियम से होना ही चाहिए। __अनन्तर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय का व्यय - यह उन्नतिरूप कार्य का क्षणिक उपादान कारण नं. १ है; क्योंकि उन्नतिरूप कार्य की उत्पत्ति पूर्व पर्याय के व्ययपूर्वक ही होती है। यह कारण विधि या पुरुषार्थ का नियामक है। जब भी कार्य होगा, तब इसी विधिपूर्वक होगा; परन्तु यह भी अभाव स्वरूप होने से समर्थ कारण नहीं है क्योंकि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती। अनन्त उत्तरक्षणवर्ती पर्याय का उत्पाद अथवा तत्समय की योग्यता - यह 'उन्नति' रूप कार्य का समर्थ कारण है; क्योंकि यह काल का नियामक है। ध्यान रहे, द्वितीय व तृतीय उपादान कारणों में काल भेद एवं वस्तुभेद नही है। ये दोनों एक ही हैं, पर्याय के अंश ही हैं अथवा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। परिशिष्ट २ बाह्य निमित्त - निमित्त कारणों के आठ भेदों में उन्नति के शिखर पर पहुँचने रूप कार्य में बेटों का पिता बाह्य निमित्त कारण है। इच्छावान एवं प्रयासरत पिता बाह्य एवं प्रेरक निमित्त हैं; क्योंकि जब 'उन्नति' रूप कार्य सम्पन्न हुआ तब उस कार्य काल में बाह्य निमित्त के रूप में कार्य के अनुकूल इच्छावान पिता उपस्थित था। अन्तरंग निमित्त - बेटे का पुण्योदय अन्तरंग निमित्त है; क्योंकि द्रव्यकर्म का उदय भी परद्रव्य है। लाभ - उपर्युक्त प्रकार से कारणों की खोज करने पर पिता को गर्व करना मिथ्या अहंकार सिद्ध होता है और कार्य-कारण के स्वरूप की यथार्थ श्रद्धावाले को ऐसा गर्व नहीं होता । यही इसके यथार्थ ज्ञान का सुफल है। (ग) भाग का उत्तर कार्य - फाँसी के फन्दे से बचा लेना। ध्रुव उपादान कारण - अपराधी का वह आत्मा, जिसमें मृत्युदण्ड से बचने का कार्य सम्पन्न हुआ, स्वभाव का नियामक हैइसे समर्थ कारण नहीं कर सकते। अन्यथा उसके रहते कार्य सदा सम्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होगा। अनन्तर पळूक्षणवर्ती पर्याय का व्यय - यह मृत्युदण्ड रूप कार्य का क्षणिक उपादान नं. १ विधि ( पुरुषार्थ) का नियामक है; क्योंकि उन्नतिरूप कार्य की उत्पत्ति इसी विधिपूर्वक होती है; परन्तु यह कार्य का अभावरूप कारण होने से समर्थ कारण नहीं है; क्योंकि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती। अनन्तर उत्तरक्षणवर्ती पर्याय का उत्पाद अथवा तत्समय की योग्यता - यह फाँसी के फन्दे से बचने रूप कार्य का क्षणिक उपादान कारण नं. २ है; यही वस्तुत: कार्य का (काल का) समर्थ कारण है, जोकि
SR No.008365
Book TitlePar se Kuch bhi Sambandh Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size235 KB
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