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पर से कुछ भी संबंध नहीं प्रश्न ६८ : कहा जाता है कि जीव अपने भाव कलंक की प्रचुरता से ही निगोदवास नहीं छोड़ पाता । तो फिर नित्य निगोदिया जीव निगोद से निकलकर मोक्षमार्ग साधने की अवस्था तक किसप्रकार आता है ?
उत्तर : इस प्रश्न के दो उत्तर हो सकते हैं। १. कर्मों के मन्दोदय रूप निमित्त सापेक्ष और २. उपादान की तत्समय का योग्यता सापेक्ष ।
पहला उत्तर : कर्म का बल मंद पड़ने पर जीव निगोद से निकलकर मोक्षमार्ग में आता है।
दूसरा उत्तर : चारित्रगुण की अपनी उपादान शक्ति से मन्दकषायरूप परिणमन करके जीव को नित्य-निगोदराशिसे निकालकर मोक्षमार्ग में लाता है।
अब तक जीव निगोद में अपने भावकलंक की प्रचुरता के कारण ही रहा है और अपने चारित्रगुण की शुभगति के कारण ही निगोद से निकलकर ऊपर आया है। दोनों टशाओं में माना गयाटान दी स्वतंत्र प्रदा है। अनेकान्ततीति | जैननीति) भी ऐसा कहती है कि तेरे द्रव्य-गुण-पर्याय की अस्ति में पर की मास्ति है, अत: निमस-कारूकाकतिमात्रांनी आत्मा के गुण-दोषों का कर्ता प्रमिहै: कजिन शिष्चकह स्वामी राम-क्षी परिनीमार्य में हस्तक्षेप महीं करता। स्तिका तेमूलारकमकहीं समा काममने विपरीत भाव में अपना शत्रु औपुग्णल करम, जोग, किधी इन्द्रिनिको भोग,
निगोद से केिका घिन किधायोरजनी किधी मोहर्याय स्वतन्त्र है। इसमें कुत्ती भीमजतन्त्रका की विवंग अपने जीपने रूप,
जब एक सबानको सदेव गणजिनमें पादेशाद भी नहीं है; वे भी परस्पर एक-दूसरे का कार्य नहीं करते तो फिरचितीत वस्तुयें, जिनम प्रदेश भिन्नता है, अत्यन्ताभाव पड़ा है; वे एक-दूसरे का कार्य करें या परस्पा
कायकर या परस्पर राग-वात मोहमषा मदिरा एक-दूसरे को प्रभावित कर, सुखी-दुःखी करें - यह कूसे सम्भव है।
समयसार नाटक.सर्वविशुद्धज्ञान, अधिकार, ऐसी स्वाधीनता की बात यदि हमें रुंच जाये एवं जंच जायें तो निश्चित
ही हमारा अनन्त दु:ख मिट जायेगा और हमारा मनुष्य भव धन्य हो जायेगा, सार्थक हो जायेगा।
प्रश्न ६९ : आत्मा के कर्म के साथ कर्ता-कर्म संबंध न सही; किन्तु निमित्त-नैमित्तिक संबंध तो माना ही है न ! फिर ‘पर में कुछ भी संबंध नहीं" - ऐसा क्यों कहा है ?
उत्तर : जिसकी स्वभाव सन्मुख दृष्टि नहीं हुई - ऐसे निमित्ताधीन दृष्टिवाले मिथ्यादृष्टि जीवों का कर्म के साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध बना रहता है और वही अज्ञानी निमित्त-नैमित्तिक सहज संबंध की आड़ में उसे कर्ता-कर्म के रूप में मानता रहता है। जबकि कर्ता-कर्म संबंध तो उनके साथ भी संभव नहीं है। उस भूल को निकालने के लिए ऐसा कहा जाता है कि पर से कुछ भी संबंध नहीं है।
जिसने अपने स्वभाव के साथ स्व-स्वामी संबंध स्थापित कर लिया है- ऐसे ज्ञानी पुरुषों को रागजनित निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी शनै:शनैः विच्छेद होने लगता है और पूर्ण वीतरागदशा प्रगट होने पर उस निमित्त-नैमित्तिक संबंधों का सम्पूर्ण विच्छेद हो जाता है।
प्रत्येक पदार्थ के भीतर इसप्रकार की शक्ति है, ऐसी योग्यता है, जिससे वह पदार्थ स्वयं प्रतिक्षण कार्यरूप परिणमित होता रहता है।
जब वस्तु अपनी सत्ता में स्वतन्त्र है, शक्तियों में स्वतन्त्र है तो फिर वह अपनी उन शक्तियों से कार्य लेने में परतंत्र कैसे हो सकती है ? वह अपने कार्य करने में भी पूर्ण स्वतन्त्र है। ___ यदि ऐसा नहीं होता और प्रत्येक कार्य के लिए परद्रव्यों की अर्थात् निमित्तों की अपेक्षा करना पड़ती, तब तो समस्त कार्यप्रणाली ही गड़बड़ा जाती; क्योंकि पर का परिणमन अपने हाथ में है ही कहाँ ?
वस्तुस्वरूप तो पूर्ण स्वतन्त्र और स्वाधीन है। उसमें ऐसी अव्यवस्था और पराधीनता नहीं है। सभी द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में उसके-निज के छहों